सड़क समाचार: वाराणसी,आपका स्वागत है. ब्रेकिंग न्यूज. (संपादकीय, रेड स्टार , अक्टूबर 2024)
" *जमानत* *नियम* *है* *और* *जेल* *अपवाद* "
*लेकिन* *उमर* *खालिद* *जैसे* *मुस्लिम* *नामों* *वालों* *पर* *यह* *लागू* *नहीं* *होता* !!
13 अगस्त 2024 को भारत के सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने अपने फैसले में कहा कि "जमानत नियम है और जेल अपवाद" का कानूनी सिद्धांत धनशोधन (मनी लॉन्ड्रिंग ) जैसे मामलों और यहां तक कि UAPA जैसे विशेष कानूनों के तहत अपराधों पर भी लागू होता है। पीठ ने आगे कहा कि यदि अदालतें योग्य मामलों में जमानत देने से इनकार करने लगेंगी, तो यह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा। शीर्ष अदालत का रुख स्पष्ट है: स्वतंत्रता नियम है और इसकी अवहेलना अपवाद।
दरअसल, इस निर्णय में कुछ नया नहीं है। भले ही सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त निर्णय की अनुपस्थिति में भी, यह एक तथ्य है कि हत्या और बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों के आरोपी भी नियमित रूप से भारतीय अदालतों से जमानत पा रहे हैं। कई लोग जिन्होंने सबसे अमानवीय अत्याचार किए हैं, वे भी जेल से जमानत पर बाहर आ रहे हैं, जबकि जिन मामलों में वे आरोपी हैं, उनका औपचारिक मुकदमा( ट्रायल) अभी शुरू होना बाकी है। लेकिन, अक्सर, मुस्लिम नाम वाले लोग इस प्रावधान के हकदार नहीं होते।
इसीलिए अदालत के इस निर्णय के उच्च आदर्श उमर खालिद के मामले में लागू नहीं होते। 36 वर्षीय उमर खालिद, जेएनयू के शोध विद्यार्थी, जो सितंबर 2020 से चार साल की मुकदमा शुरू होने से पूर्व कैद भुगत रहे हैं। खालिद एक ऐसा उदाहरण हैं जहां सर्वोच्च न्यायालय का फैसला सिर्फ एक उपदेश बन गया है। वरना, खालिद जिनका 'अपराध' सिर्फ 2020 में मुस्लिम विरोधी CAA के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध में भाग लेना था, और जहां पुलिस और अभियोजन पक्ष ठोस सबूत पेश करने में असफल रहे हैं, उन्हें तिहाड़ जेल के अधिकतम सुरक्षा वाले जेल में सड़ने के लिए मजबूर नहीं किया जाता। कई अदालतों के साथ-साथ खालिद की शीर्ष अदालत में याचिका भी 14 बार स्थगित की जा चुकी है।
उमर खालिद के मामले में, भारतीय अदालतें संवैधानिक अधिकारों की सर्वोच्चता को सत्तारूढ़ शासन की राजनीतिक प्राथमिकताओं पर पुनः स्थापित करने में विफल रही हैं। जब भी खालिद का मामला सुनवाई के लिए आया, यहां तक कि शीर्ष अदालत में भी, इसे अभियोजन पक्ष के अनुरोध पर, वकीलों की अनुपस्थिति, विशेष रूप से वरिष्ठ वकीलों की अनुपलब्धता, समय की कमी और अन्य लचर तकनीकी कारणों के बहाने स्थगित कर दिया गया।
निस्संदेह, फासीवादी शासन सचमुच वैचारिक रूप से सख्त खालिद से डरता है, जिन्होंने कहा: "वैचारिक रूप से, आप कह सकते हैं, मैं एक मूलभूत परिवर्तन कामी लोकतांत्रिक हूं। मैं लोकतंत्र में विश्वास करता हूं, और मैं ऐसे लोकतंत्र में विश्वास करता हूं जो सिर्फ आपके वोट तक सीमित न हो... इसे हर रोज की जिंदगी में भी लागू होना चाहिए, जहां आप अपनी समस्याओं और चिंताओं को लोकतांत्रिक तरीके से व्यक्त कर सकें।" इसी बीच, दिल्ली पुलिस अभी भी खालिद को फरवरी 2020 के उत्तर-पूर्वी दिल्ली में मुस्लिम विरोधी CAA विरोध प्रदर्शन में एक प्रमुख साजिशकर्ता बताने का दावा कर रही है।
जेएनयू के विद्यार्थियों में सबसे सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ताओं में से एक के रूप में, खालिद 2016 से ही खबरों में थे, जब उन्हें चार अन्य लोगों सहित अफजल गुरु की फांसी के खिलाफ जेएनयू में विरोध प्रदर्शन आयोजित करने के लिए राजद्रोह का आरोप लगाया गया था। संसद हमले में अफजल गुरु की संलिप्तता के संबंध में किसी भी ठोस साक्ष्य की अनुपस्थिति के बावजूद, सुप्रीम कोर्ट ने उस पर कड़ी टिप्पणी के साथ मौत की सजा सुनाई: “इस घटना ने पूरे देश को झकझोर दिया था, और समाज की सामूहिक अंतरात्मा तभी संतुष्ट होगी जब अपराधी को मौत की सजा दी जाएगी।” यहां तक कि अफजल के परिवार को इस फैसले और इसके जल्दबाजी में क्रियान्वयन के बारे में सूचित नहीं किया गया और न ही उसके रिश्तेदारों को फांसी से पहले उससे मिलने का अवसर दिया गया।
जबकि संसद हमले के वास्तविक मास्टरमाइंड की पहचान अभी तक नहीं हो पाई है और उन पर कोई जांच भी नहीं हुई, समाज की “सामूहिक अंतरात्मा” को संतुष्ट करने के लिए किसी व्यक्ति को मौत की सजा देना “न्यायिक हत्या” के अलावा कुछ नहीं है। इसलिए, खालिद को 9 फरवरी 2016 को “न्यायिक हत्या” के खिलाफ आयोजित एक कार्यक्रम के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था। खालिद, भगवा ताकतों के लिए अन्य कारणों से भी खटक रहे थे। उदाहरण के लिए, वे 5 सितंबर 2017 को बेंगलुरु स्थित अपने घर में मारी गई पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों में सबसे आगे थे। हत्यारों की गोलियां उनके विचारों को खामोश नहीं कर सकतीं, यह घोषित करते हुए खालिद ने कहा: “हिंदुत्व फासीवादी ताकतों की मुखर आलोचक गौरी लंकेश की हत्या से मैं आक्रोशित और स्तब्ध हूं। मेरे लिए वह सिर्फ एक पत्रकार नहीं थीं। वह जेएनयू आंदोलन की मजबूत समर्थक थीं।”
संक्षेप में, जब शीर्ष अदालत जमानत को नियम और जेल को अपवाद घोषित करती है, तब भारत में हम ऐसी स्थिति में रह रहे हैं जहां न्यायिक फैसले अंततः राजनीतिक/कार्यकारी विचारों से प्रभावित और नियंत्रित हो रहे हैं। यहां तक कि अपने हिंदुत्ववादी आकाओं को खुश करने के लिए उत्सुक न्यायाधीश भी अब अपने फैसलों में मनुस्मृति का हवाला दे रहे हैं और मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को ‘पाकिस्तान’ करार दे रहे हैं। मुस्लिमों की भीड़ द्वारा पीट-पीट कर हत्या, मस्जिदों को ध्वस्त करना और उनके घरों को बुलडोजर से ध्वस्त करना अब सामान्य हो गया है, और खासकर भाजपा शासित राज्यों में मुसलमानों के लिए एक नागरिक के रूप में जगह तेजी से सिकुड़ रही है। इसलिए, उमर खालिद का बिना मुकदमे या जमानत के जेल में रहना इस व्यापक हिंदुत्व एजेंडे का हिस्सा है जिसमें मुसलमानों को दुश्मन नंबर 1 के रूप में कलंकित किया गया है।
उमर खालिद के साथ एकजुटता में!
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