डॉ. रामा नंद सिंह यादव द्वारा युवा समाज का पक्ष लिखा गया - सड़क समाचार पत्रिका (जनता की आवाज) 🌎

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19/08/2024

डॉ. रामा नंद सिंह यादव द्वारा युवा समाज का पक्ष लिखा गया

जनता की आवाज, ब्रेकिंग न्यूज Gmail DR. PARMA NAND SINGH YADAV 
युवा समाज 
डॉ परमानंद यादव के माध्यम से बाबूलाल यादव एक सामाजिक कार्यकर्ता की खबर 


 

आपने ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक यूथ आर्गेनाईजेशन (AIDYO) के पश्चिम बंगाल प्रथम राज्य सम्मेलन के खुले अधिवेशन में भारत और खासकर पश्चिम बंगाल की मौजूदा परिस्थिति में युवा समुदाय की समस्याओं और उनके कार्यभारों के संबंध में चर्चा करने के लिए मुझसे आग्रह किया है। पहली बात तो यह है कि युवा समस्या सम्पूर्ण समाज की समस्याओं से अलग-थलग कोई समस्या नहीं है। मैं तो ऐसा ही समझता हूं। इसलिए युवा समाज की समस्याएं या युवा आंदोलनों के समक्ष जो समस्याएं हैं, उनकी सही समझदारी हासिल करने के लिए हमारे समाज की एक सामान्य रूप-रेखा यानी मौजूदा राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक परिस्थिति के संबंध में एक स्पष्ट धारणा रहनी चाहिए। क्योंकि, मैं समझता हूं कि इसी पृष्ठभूमि में हम सही तौर पर युवा समस्या को समझ पायेंगे।

 

अनेक घात-प्रतिघातों से गुजरते हुए पश्चिम बंगाल में, और सिर्फ पश्चिम बंगाल में ही क्यों, पूरे भारत में आज जन आंदोलन जिस मुकाम पर आ खड़ा हुआ है, उसके सामने जो अहम सवाल है, वह यह है कि आंदोलन इस देश में नहीं हुए हैं, बात ऐसी नहीं है, युवा आंदोलन इस देश में नहीं हुए हैं, ऐसा भी नहीं है। ऐसा बहुतों बार हुआ है। कई बार तो युवा आंदोलन के सैलाब से देश डूब गया है। बावजूद इसके पूरे देश के युवा समाज के सामने जो मुख्य समस्याएं थीं, देश के सामने जो समस्याएं थीं, उनमें से किसी का हल तो हुआ ही नहीं, बल्कि वे और भी जटिल हो गयी हैं।

 

जनवादी आंदोलन संचालित करने के मामले में दृष्टिकोण संबंधी कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया। युवा आंदोलन पहले भी हुए हैं, आगे भी होंगे। आप जैसा संगठन देश में पहले भी अनेक बार निर्मित करने की कोशिश हुई है, शायद आने वाले दिनों में या आज ही और निर्मित होंगे। लेकिन जिस समस्या को मैं आपके सामने रखना चाहता हूं, यदि आप उसे समझ न सकें, तो अतीत के अनेक आंदोलनों की तरह ही शायद इस आंदोलन का हश्र भी कुछ क्षणिक फायदा या नुकसान में ही सिमटकर रह जायेगा।

 

यदि पूरे भारत के मौजूदा समाज का विश्लेषण करें, तो हम पायेंगे कि उसका राजनैतिक पहलू कुछ इस तरह है: अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़कर जैसे भी हो, देश राजनैतिक तौर पर आजाद हुआ। आजादी कैसी है, आजादी के बाद राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था कैसी है इन बातों पर मतांतर हो सकता है। इस संबंध में भी मैं आपके समक्ष अपना कुछ विचार रखूंगा। लेकिन मैं समझता हूं एक विषय पर मतभेद की कोई गुंजाइश नहीं है कि देश आजाद हुआ है। आजादी के बाद देश में स्थापित राजनैतिक व्यवस्था के संबंध में विभिन्न राजनीतिक दलों और विभिन्न वर्गों की किसी भी दृष्टिकोण से जो भी व्याख्या क्यों न हो, यह निर्विवाद सत्य है कि आजादी आंदोलन का जो मुख्य मकसद था जनमुक्ति देश की जनता की हर तरह के शोषण से मुक्ति वह इस तरह की आजादी हासिल करने के जरिये अधूरी रह गयी। इस बात को आज किसी भी तरह इंकार नहीं किया जा सकता। शोषण का रूप कैसा है इस बात को लेकर मतभेद हो सकता है। लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं है कि भारतीय समाज में शोषण-जुल्म का शासन जनता की छाती पर भारी चट्टान की तरह सवार होकर देश की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक नीतियों तथा व्यवहारों को नियंत्रित कर रहा है। प्रगतिशील लोगों के बीच, जनता के साथ चलने वाले लोगों के बीच इस संबंध में कोई दो राय नहीं है। मतांतर इस बात पर है कि शोषण का चरित्र क्या है।

 

मैं शुरू में ही इस बात पर थोड़ी चर्चा करना चाहूंगा कि युवा आंदोलन और उसके सांस्कृतिक आंदोलन का उद्देश्य क्या है। ऐसा इसलिए कि युवा आंदोलन, उसके सांस्कृतिक आंदोलन और युवाओं के ज्ञान-विज्ञान तथा आदर्शों की चर्चा का कोई मतलब ही नहीं रह जाता, यदि वे वास्तविक जीवन पर, सामाजिक आंदोलन पर, देश के राजनीतिक आंदोलन पर तथा आर्थिक प्रणाली पर कोई कारगर असर न डालें। दूसरे शब्दों में हम सुसंस्कृत हैं, हम ज्ञान-विज्ञान के अनेक सिद्धांतों पर चर्चा-बहस करते हैं, लेकिन हमारे जीवन में उसका कोई असर नहीं है, जीवन में तनिक भी बदलाव लाने, उसे उन्नत करने में उसकी कोई भूमिका नहीं है। ऐसे युवा आंदोलन, सांस्कृतिक आंदोलन तो सजे-सजाये बैठकखानों की अड्डेबाजी हैं, हल्की-फुल्की बातचीत है या अधिक से अधिक दो-चार पत्र-पत्रिकाएं पढ़कर अपने आप में आत्म-संतुष्टि प्राप्त करने का साधन मात्र है। यही यदि आंदोलनों का, सांस्कृतिक चर्चा-अभ्यास का, संगठन निर्माण का या युवा आंदोलन का मकसद हो, तो मैं कहूंगा कि ऐसे आंदोलन बंद कर देना ही बेहतर है। ऐसे आंदोलनों से देश का कोई लाभ होने को नहीं है।

 

स्वाभाविक तौर पर यह सवाल उठ सकता है कि तब फिर क्या ज्ञान के चर्चा-अभ्यास और शिक्षा प्राप्ति का कोई मतलब नहीं है? मैं समझता हूं कि महज आत्म संतुष्टि के लिए ज्ञान के चर्चा-अभ्यास और उद्देश्यहीन ढंग से शिक्षा हासिल हासिल करने का कोई मतलब नहीं है। इससे प्रतिक्रिया की ताकत को ही बल मिलता है। जनहित और प्रगति के लिए शिक्षा और ज्ञान करने का मात्र एक ही मकसद हो सकता है, वह जीवन में उसका प्रयोग। वह जीवन को सही रूप में प्रभावित करेगा, हमारे आपके चरित्र को प्रभावित करेगा, समाज के अंदर आपस में संघर्षरत वर्गों के संघर्ष का चरित्र निर्धारित करना सिखाएगा। वह हमें सिखाएगा कि देश में चल रहे सम्पूर्ण आंदोलन और और समस्याओं के साथ हम कैसे जुड़ सकते हैं और किस वर्ग के आंदोलन में हम अगली कतार में शामिल हो सकते हैं। क्योंकि, हम सामाजिक जीव हैं, हम समाज के ही अंग हैं। जाहिर है कि समाज अगर सड़ जाये, टूट जाये, तो उससे सम्पूर्ण मानव समाज का नुकसान होगा. हमारा भी नुकसान होगा। इसलिए समाज की समस्याएं क्या हैं, समाज में गिरावट क्यों आ रही है इन बातों पर यदि युवा दिमाग न लगायें, यदि उन्हें जिम्मेदारी का एहसास न हो, यदि उनका काम समाज के अंदर चल रहे वर्ग-संघर्षों तथा तमाम तरह के सामाजिक आंदोलनों से अलग-थलग रहकर महज विशुद्ध ज्ञान-चर्चा हो, मैं कहूंगा कि वह ज्ञान-चर्चा या ज्ञान-साधना के नाम पर महज ढकोसला है। प्रतिक्रियावादी अथवा समाज के परजीवी विशुद्ध ज्ञान की चर्चा कहकर चाहे इसकी कितनी ही तारीफ क्यों न करें, दरअसल यह ज्ञान-चर्चा नहीं है। 'विशुद्ध ज्ञान की चर्चा' के समर्थन में इनके द्वारा चिकनी-चुपड़ी कर्ण-प्रिय बहुत बातें कही जा सकती हैं। लेकिन, जो जन आंदोलन तथा जन जीवन को प्रभावित नहीं करते, जो जन आंदोलन में आगे नहीं आते, सामाजिक समस्याएं जिनके दिलों में दर्द पैदा नहीं करतीं और समाज प्रगति की चिंता जिनकी आखों से नींद नहीं छीन लेती, ऐसे सुसंस्कृत लोगों से आप दूर रहें। आपसे यह हमारा हार्दिक आग्रह है। हमें हमेशा याद रखना होगा कि संगठन, युवा आंदोलन, युवाओं के सांस्कृतिक आंदोलन इन सब बातों का कोई मतलब ही नहीं है यदि देश के युवा यह सही तौर पर निर्धारित नहीं कर सकें कि पूरे देश की मुख्य समस्या क्या है और उस संदर्भ में उनका कार्यभार क्या है। क्योंकि, ऐसा न होने पर ज्ञान-चर्चा, संस्कृति-चर्चा सिर्फ एक शौक व मनबहलाव की चीज तथा जनता को ठगने का साधन बनकर रह जायेगी।

 

अब सम्पूर्ण देश का एक नक्शा, जैसा कि मैंने समझा है, संक्षेप में आप के सामने रखना चाहता हूं। आजादी के बाद भी स्वतंत्रता आंदोलन से भारतीय जनता की जो उम्मीदें थीं यानी सभी प्रकार के शोषणों से मुक्ति और जनहित में सुखी-समृद्ध भारत का निर्माण, वह अब तक पूरा नहीं हुआ। लेकिन यहां जो निर्मित हुआ, वह है भारत के पूंजीपति वर्ग के हित में शोषण, अत्याचार तथा सामाजिक अन्यायों की बुनियाद पर कायम ऐसी एक सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक व्यवस्था, जो भारी चट्टान की तरह हमारे समाज की छाती पर, जनता की छाती पर सवार है। दरअसल यह व्यवस्था और यह घटना ही सारी सामाजिक समस्याओं, युवा समस्या तथा समाज-प्रगति की समस्या के निदान में एक बड़ी घटना या बाधा है। इसलिए कोई भी युवा आंदोलन या सांस्कृतिक आंदोलन किसी भी तर्क से राजनैतिक आंदोलन से अलग-थलग नहीं रह सकता। हमारे सामने जो भी समस्याएं हैं, उनका मुख्य कारण है देश की मौजूदा राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था। यदि आप इस बात को मान लेते हैं और यदि आप तार्किक मानसिकता से लैस हैं, तो आप इस बात को नकार नहीं सकते कि कोई भी प्रगतिशील युवा आंदोलन शोषित जनता के बुनियादी राजनैतिक आंदोलन से अलग-थलग नहीं रह सकता, गैर-राजनैतिक नहीं रह सकता। कोई भी प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन इस बुनियादी राजनैतिक आंदोलन से अलग, राजनीति के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकता, गैर-राजनैतिक नहीं हो सकता। ऐसी हालत में चाहे शोषक वर्ग हो या शोषित वर्ग- इन दोनों वर्गों में से किसी एक के राजनैतिक आंदोलन के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में अपने को जोड़ना ही होगा। आप निश्चित तौर पर शोषक वर्ग की राजनीति के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी रूप में जुड़ना नहीं चाहेंगे। अतएव आप जिस युवा आंदोलन और सांस्कृतिक आंदोलन का संचालन कर रहे हैं, उसकी आज मुख्य समस्या यही है कि कैसे इन आंदोलनों को देश के शोषित वर्ग के शोषण से मुक्ति के क्रांतिकारी आंदोलन से जोड़ दिया जाये।

 

एक तबके के लोग कहते हैं कि छात्रों या युवाओं को राजनीति से अलग रह कर केवल सामाजिक कल्याण के बारे में सोचना चाहिए। ऐसे लोगों पर, उनकी ईमानदारी पर शक करना अनुचित नहीं होगा। इनमें कुछ लोग ऐसे भी हो सकते हैं, जो वाकई गुमराह हों। यह कोई खास बात नहीं है। लेकिन उनके ऐसे प्रचार के पीछे जो वर्गीय मंसूबा काम कर रहा है, वह यह है कि छात्रों और युवाओं को राजनीति के प्रति उदासीन बना दो। जबकि सारे देश की समस्याओं के समाधान का सवाल शोषित वर्ग के बुनियादी राजनैतिक सवाल के साथ ओतप्रोत रूप से जुड़ा हुआ है। हम चाहें या न चाहें, हमें अच्छा लगे या बुरा, किसी व्यक्ति विशेष को राजनीति से जो भी अभिरूचि या घृणा रहे, वस्तु-स्थिति यही है कि समाज की तमाम समस्याओं से राजनीति सीधा सम्बन्ध रखती है। जबर्दस्ती के अलावा इसे नकारा नहीं जा सकता। मिसाल के तौर पर हमारे समाज में जो गैरबराबरी है, जो वर्ग-विभाजन है, वह एक हकीकत है। हम कहते हैं. इसलिए समाज वर्ग-विभाजित है या हमारे जैसे कुछ लोगों का ऐसा मानना है, इसलिए भारतीय समाज वर्ग-विभाजित है-बात ऐसी नहीं है। भारतीय समाज ऐतिहासिक वजह से ही वर्ग-विभाजित है। हम चाहें या न चाहें, हमें अच्छा लगे या बुरा यह समाज इतिहास के अमोघ नियम से वर्ग-विभाजित हुआ है। इसके एक ओर जुल्म-अत्याचार के शिकार शोषित-पीड़ित मेहनतकश अवाम- मजदूर, खेतिहर मजदूर, गरीब किसान, निम्न मध्यमवर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग है; तो दूसरी ओर हैं बड़े पूंजीपति, बड़े व्यवसायी, धनी किसान आदि तथा इस शोषक वर्ग के हित में काम करने वाली शासन-व्यवस्था तथा राजसत्ता की सारी नौकरशाही शक्ति। ऐसा वर्ग-विभाजन हमारा किया हुआ नहीं है। यदि ऐसा नहीं हुआ होता, तो शायद अच्छा होता। इतिहास ने अगर मालिक और मजदूर पैदा नहीं किया होता, तो हम एतराज नहीं करते। अगर धनी किसान, बटाईदार तथा खेतिहर मजदूर पैदा नहीं हुए होते, तो हम एतराज नहीं करते। हमारे चाहने से ऐसा नहीं हुआ है। यह इतिहास के अमोघ नियम से हुआ है। अतएव, इसकी जिम्मेदारी हम पर थोपने से कोई फायदा नहीं है। हम जो कहना चाहते हैं, वह यह कि इस वस्तु-स्थिति को हमें मानना होगा। इस सच्चाई को समझकर इसका स्वरूप निर्णित करना होगा। इसका मतलब क्या है? इसका मतलब है कि वर्ग-विभाजित समाज के अंदर एक ओर शोषक और दूसरी ओर शोषित इन दोनों वर्गों में निरंतर संघर्ष चल रहा है। यह हमारी मनगढंत बात नहीं है, बल्कि यह हमारी चेतना से परे निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। इसका निर्माण इतिहास के अमोघ नियम से ही हुआ है। और इस संघर्ष की प्रक्रिया में ही भारत का राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन चल रहा है। भारतीय मनन शक्ति (Intelectual faculty), सामाजिक चिंतन, सोच-विचार आदि जो भी हम अपने बीच मौजूद पाते हैं, वे सभी इसी का ऊपरी ढांचा (Super structure) हैं। इसी संघर्ष के नतीजतन इसका निर्माण होता है और इसी संघर्ष में वह चलता रहता है। ऐसे में इस संघर्ष का सही रूप निर्धारित किये बिना हम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। अगर हम आगे बढ़ने की कोशिश करेंगे, तो वह अंधों की तरह कोशिश होगी। और अंधे जब आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं, तो जो होता है, ऐसे आगे बढ़ने से वही होगा। हम सबके मामले भी वही होगा।

 

इसलिए, भारतीय समाज, हमारा राष्ट्र शोषक और शोषित-इन दो वर्गों में बंटा हुआ है। इस वर्ग-विभाजित राष्ट्र की पृष्ठभूमि में ही तमाम आंदोलनों का स्वरूप निर्धारित करना होगा। प्रसंगवश मैं कहना चाहूंगा कि 'देशप्रेम', 'देश की पुकार' 'देशहित', 'राष्ट्रीय एकता' आदि बातों की आड़ में देश का प्रतिक्रियावादी शोषक वर्ग, बुर्जुआ लोग अक्सर युवाओं के देशप्रेम से फायदा उठाकर उन्हें गुमराह किया करते हैं। यह बात आपको सदा याद रखनी होगी कि बेशक देश को प्यार करना एक महान काम है, लेकिन देश को प्यार करने का मतलब मालिकों के तलवे चाटना नहीं है। यह कोई महान काम नहीं है। देशहित के नाम पर मालिक वर्ग के हितों की रक्षा करते चलना और यह सोचना कि हम देश को काफी प्यार करते हैं, हम देशसेवक हैं। यह कोई महान काम नहीं है। यह देश के प्रति घोर दुश्मनी है, अनजाने में सही, लेकिन यह घोर विश्वासघात है और इससे अंततः देश का काफी नुकसान होता है। इसलिए मैं कहता हूं, 'हमारा देश', 'हमारा राष्ट्र' जिसकी समस्याओं को लेकर हम चर्चा कर रहे हैं, दरअसल वह अविभाजित राष्ट्र नहीं है। वह वर्ग-विभाजित राष्ट्र है जिसमें एक ओर मालिक वर्ग है, तो दूसरी ओर मजदूर वर्ग। इसलिए 'राष्ट्रीय एकता', 'जनता की एकता', 'युवाओं की एकता' जैसी बातों से दो ही अर्थ निकल सकते हैं। मालिक वर्ग के हित में युवाओं की एकता, जनता की एकता, देश के लोगों की एकता या फिर मजदूर वर्ग, शोषित वर्ग के हित में युवाओं की, देश की जनता की तथा शोषित-पीड़ित लोगों की एकता। वर्ग विभाजित समाज में श्देश की एकता के उपर्युक्त दो ही विज्ञान-संगत अर्थ हो सकते हैं। दूसरे सभी अर्थ देशहित के नाम पर जनता को ठगने के लिए बुर्जुआ वर्ग की चालाकी है। इसलिए वर्ग चरित्र एवं वर्ग-हित का उल्लेख किये बिना श्देश की एकता, 'देशहित', जैसी बातें करने से काम नहीं चलेगा। साथ ही 'देश के लिए लड़ रहे हैं' इस तरह से समझने से भी काम नहीं चलेगा। आप लोगों को समझना होगा कि 'देश का हित' अधिकांश लोगों के हित के अर्थ में किस वर्ग के हित के साथ ऐतिहासिक तौर पर ओतप्रोत रूप से जुड़ा हुआ है। यदि शोषित वर्ग के हित के साथ, मजदूर वर्ग के हित के साथ, किसान खेत मजदूरों के हित के साथ, निम्न माध्यम वर्ग के हित के साथ देश के हित का सवाल एकार्थ हो गया हो, तो उस हालत में इन्हीं के हित में देश में आंदोलन निर्मित करना, युवा शक्ति को संचालित करना तथा युवा समाज को संगठित करना देश का काम कहलाएगा। इसलिए 'देशहित' के बारे में युवाओं में यह स्पष्ट धारणा होनी चाहिए, यह विचार होना चाहिए कि वे भारत में इस वर्ग विभाजित समाज में देशहित के नाम पर जिस हित का परचम लेकर चलना चाहते हैं, क्या वह शोषक वर्ग के हित में है या शोषित वर्ग के हित में? बगैर इस बात को समझे सिर्फ सतही ढंग से 'देश', 'देश' करते रहने से हम बार-बार मालिक वर्ग की साजिश के शिकार होंगे, न चाहते हुए भी शायद उन्हीं के हितों की हिफाजत कर बैठेंगे। ऐसी घटना अतीत में भी बहुतों बार हुई है और भविष्य में भी होगी।

 

मैं इन तमाम बातों की विस्तृत व्याख्या करना नहीं चाहता। मैं इस दृष्टिकोण से युवा समुदाय के समक्ष तमाम बातों को इसलिए रखना चाहता हूं कि सिर्फ पश्चिम बंगाल में ही नहीं, सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया के तमाम आंदोलनों में न सिर्फ मध्यम वर्ग या पढ़े-लिखे तबके के, बल्कि मजदूर किसानों के घर के युवक-युवतियों की सम्मिलित शक्ति ही इस आंदोलन की प्राण है। बूढ़े लोग, हर बात में नफा-नुकसान जोड़ने वाले लोग, सनातनपंथी पोंगापंथी कभी समाज में उफान पैदा नहीं कर पाये, कभी सामाजिक बदलाव नहीं ला पाये, सामाजिक समस्याओं के अंतिम हल के लिए आगे नहीं आ पाये। उन्होंने ऐसे आंदोलनों का संचालन नहीं किया। जिन्होंने समाज को बदला, जिन्होंने सभ्यता को आगे बढ़ने के लिए बड़े आंदोलन का निर्माण किया, वे हर देश में छात्र-युवा ही थे। और यह युवा समुदाय सिर्फ मध्यमवर्गीय शिक्षित युवा समुदाय नहीं है, बल्कि शोषित वर्ग का युवा समुदाय है। इसलिए किसान युवाओं के बारे में भी सोचना होगा, मजदूर युवाओं के बारे में भी सोचना होगा। उन्हें बड़े पैमाने पर आंदोलन में शामिल करने की बात को ध्यान में रखकर उनके साथ मिलजुलकर आप शिक्षित युवाओं को काम करना होगा। हमारे देश के युवा आंदोलन के लिए यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण काम पड़ा हुआ है।

 

याद रखना होगा कि देश की आबादी में इन मजदूर-किसान युवाओं का बहुत बड़ा हिस्सा है। बगैर इनके शिक्षित युवा एक चिंतन, एक सोच, एक आदर्शवाद तो ला सकते हैं, एक हलचल तो पैदा कर सकते हैं, लेकिन इन्हें छोड़कर आप आंदोलन का सैलाब और उफान कतई पैदा नहीं कर सकते। किसान-मजदूरों के घरों के युवक-युवतियों को छोड़कर आप देशव्यापी विशाल युवा आंदोलन खड़ा नहीं कर सकते। इसलिए किसान-मजदूर घरों के युवक-युवतियों को बड़े पैमाने पर युवा आंदोलन में शामिल करने पर आपको गंभीरता से विचार करना होगा।

 

तो, आप लोगों के युवा-आंदोलन व सांस्कृतिक आंदोलन के सामने जो समस्याएं हैं, उनमें मुख्य समस्या यही है कि हर तरह के शोषण के खिलाफ चल रहे सर्वहारा वर्ग के मूल राजनैतिक संघर्ष के साथ आपके युवा-आंदोलन को कैसे संयोजित किया जाये। इसके लिए जरूरत है सभी प्रकार के शोषणों के खिलाफ शोषित वर्गों का बड़ा जन आंदोलन। उस आंदोलन का स्वरूप कैसा होगा, उसके तौर-तरीके कैसे होंगे, उसकी समस्याएं किस तरह की होंगी यदि इन बातों को समझते हुए देश के युवाओं को सही तौर पर प्रेरित करना है, तो जो लोग इस आंदोलन का निर्माण करेंगे, उन्हें पहले देश के युवा समुदाय की आज की मानसिकता को अच्छी तरह समझना होगा।

आज के युवा समुदाय, खासकर मध्यम वर्ग के शिक्षित युवाओं की मानसिकता का एक पहलू, जो अत्यंत स्पस्ट रूप में दिखाई दे रहा है, वह है यह है कि दिन पर दिन इस देश में युवा सामाजिक समस्याओं के प्रति उदासीन होते जा रहे हैं। लगता है जैसे यह लगातार बढ़ती ही जा रही है। हम रोजाना लोगों में, युवा समुदाय में, शिक्षित समुदाय में समाज के संबंध में, किसी भी प्रगतिशील आंदोलन के संबंध में बिल्कुल बेफिक्री की भावना, पूर्ण उदासीनता की भावना (complete indefferent attitude) देख रहे हैं। इसमें लगातार इजाफा हो रहा है। आप लोगों को इसके कारण का ठीक-ठीक पता लगाना होगा। इतिहास और तर्क-विज्ञान के सहारे इस समस्या की गहराई में पहुंचने पर आप स्पष्ट तौर पर समझ पायेंगे कि राजनैतिक आंदोलन की नीतिहीनता और वैचारिक दिवालियापन यानी निचोड़ में कहा जाये, तो लम्बे अर्से से राजनैतिक नेतृत्व के दिवालियापन तथा घोर अवसरवाद ही इस हालत के लिए मुख्य तौर पर जिम्मेदार है। इसलिए, आप लोगों को दो तरह से इस स्थिति से मुकाबला करना होगा। पहला यह कि तमाम तरह के शोषणों के खिलाफ रोजाना जो जनवादी आंदोलन तथा वर्ग-संघर्ष हो रहे हैं, उनमें खुलकर शिरकत करते हुए युवा आंदोलन निर्मित करना। दूसरा यह कि वैचारिक और सांस्कृतिक आंदोलन को देश के सर्वहारा वर्ग के बुनियादी क्रांतिकारी राजनैतिक संघर्ष के साथ जोड़कर सांस्कृतिक आंदोलन का संचालन करना और इस प्रकार देशव्यापी सांस्कृतिक क्रांति की एक फिजा तैयार करना। इस प्रकार वैचारिक तथा सांस्कृतिक आंदोलन को देश के सर्वहारा वर्ग के बुनियादी राजनैतिक आंदोलन के साथ सही ढंग से जोड़ पाने से ही आप देश के सीने पर सवार बोझिल चट्टान को हटा पायेंगे। लेकिन, जो लोग इस बोझिल चट्टान को हटाएंगे; जो लोग देश में बिल्कुल नये ढंग के जन आंदोलन का उभार पैदा करेंगे, उन्हें सबसे पहले समझना होगा कि आखिर देश में सामाजिक समस्याओं के प्रति बढ़ती इस उदासीनता का कारण क्या है? क्यों दिन पर दिन समाज के अंदर, युवकों के अंदर, छात्रों के अंदर समाज के बारे में उदासीनता पनप रही है? जबकि इसी देश में हमने देखा है कि आजादी आंदोलन के दौरान जब आजादी आंदोलन की लहर चल रही थी, तब शिक्षित युवा समुदाय सामाजिक चेतना से लबालब भरा था। उस चेतना का स्वरूप चाहे जैसा भी रहा हो, समझदारी चाहे जिस स्तर की भी रही हो; फिर भी उन दिनों के युवाओं में इतनी बात तो अवश्य थी कि हम देश के सपूत हैं, देश के आजादी आंदोलन के प्रति हमारे भी कुछ कर्तव्य हैं और आजादी आंदोलन में हमें भी कुछ करना है। उस दौरान इस गुलाम देश के युवाओं को गुलामी की पीड़ा बेचैन कर देती थी। वे आजादी आंदोलन में झुंड के झुंड शामिल होते थे। फर्स्ट क्लास फर्स्ट आने वाला छात्र अपने सुनहरे भविष्य (career) को लात मारकर परीक्षा-कक्ष से मुस्कुराते हुए बेहिचक निकल पड़ता था। वह मां-बाप, सगे-संबंधी-किसी की भी बातों की परवाह नहीं करता था। यह बात तो थी। इसे नकारने की कोई गुंजाइश नहीं है। बंगाल के, भारत के युवाओं में, छात्रों में यह मानसिकता तो थी। लेकिन कहां खो गयी वा मानसिकता? क्यों खो गयी? आपको इन सवालों के जवाब ढूंढने होंगे।

 

आज सबसे बड़ी समस्या यह है कि देश के लड़के-लड़कियां विचार और मूल्यों के बारे में नहीं सोचते। समाज के बारे में ऊबन, लापरवाही तथा आत्मकेन्द्रिक मानसिकता मानो तेजी से देश के युवक-युवतियों को अपनी जद ले रहा है। 'मुझे अपने बारे में ही सोचना है। मुझे इन सब झंझटों में पड़ने की कोई जरूरत नहीं'- यह मानसिकता दिन पर दिन बढ़ रही है। धीरे-धीरे ही सही, उनमें राजनीति के प्रति एक प्रकार की अनासक्ति पनपती दिखाई पड़ रही है। उनकी समझ है कि राजनीति करना बेकार का काम है। बुर्जुआ वर्ग तथा दूसरे प्रतिक्रियावादी ताकतों के हित में उनमें इस तरह की सोच बड़ी बारीकी और चालाकी से फैलायी गयी है और फैलायी जा रही है कि राजनीति करना बड़ा काम नहीं है, बल्कि इंजीनियर बनना बड़ा काम है, बड़ी नौकरी करना बड़ा काम है, व्यवसायी बनकर पैसा कमाना बड़ा काम है और मालिक की सेवा करना ही जीवन की सार्थकता है। मुझे बड़ा बनना है इसका अर्थ क्या है? मुझे इंजीनियर बनना है यानी गुलाम बनना है। बदले में मुझे काफी पैसे मिलेंगे। मेरे पास अच्छे कपड़े होंगे, मौज-मस्ती होगी। और राजनीति करने से जिन्दगी बर्बाद हो जायेगी। वह तो गये-गुजरे लोगों का काम है। और अच्छे लोग शिक्षित बनकर, अच्छे टेकनिशियन बनकर मालिकों की दलाली करते हैं। इस तरह की मानसिकता युवाओं में बढ़ रही है, बढ़ायी जा रही है। अब सवाल उठ सकता है कि युवाओं में ऐसी निम्न कोटी की आत्मकेन्द्रिक मानसिकता के पनपने, सामाजिक समस्याओं के प्रति बढ़ रह उदासीनता तथा समाज के अंदर विभिन्न वर्गों के बीच चल रहे संघर्ष के बारे में उनकी बढ़ती लापरवाही की वजह क्या है? बहुतों को लग सकता है कि युवाओं में नैतिक गिरावट ही इसकी वजह है। लेकिन, इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि कुछ दिनों पहले भी, आजादी आंदोलन के दौरान भी युवाओं का आचरण-व्यवहार ऐसा नहीं था। तो फिर, क्या यह मान लेना होगा कि जिस समय युवाओं को, छात्रों को 'They are the flowers of Bengal' (वे बंगाल के पुष्प हैं) कहा जाता था, उस समय स्वयं 'ब्रह्मा' अपने हाथों से खास तरह से तैयार कर 'पुष्पों' को बंगाल भेजा करते थे? और आज 'ब्रह्मा जी' नाराज हो गये हैं, इसलिए बंगाल में बिल्कुल उल्टे किस्म के लड़के-लड़‌कियां पैदा हो रहे हैं? दरअसल बात ऐसी नहीं है। इसका कारण हमें समाज के अंदर, देश की राजनैतिक गतिविधियों और नेतृत्व के मानसिक तथा नैतिक स्तर में ढूंढ़ना होगा। तभी हमें इसका सही जवाब मिलेगा। वर्ना हम लोग इसी नतीजे पर पहुंचेंगे कि 'ब्रह्मा' की ही मर्जी से सबकुछ हो रहा है। हमारे लिए कुछ भी करने को नहीं है। आज लड़के-लड़कियों में आ रही गिरावट सभी देख रहे हैं पिता देख रहे हैं, शिक

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