सड़क समाचार पत्रिका(जनता की आवाज़) एक हिंदी समाचार वेबसाइट और मीडिया प्लेटफ़ॉर्म है जो भारतीय राजनीति, सरकारी नीतियों, सामाजिक मुद्दों और समसामयिक मामलों से संबंधित समाचार और जानकारी प्रदान करने पर केंद्रित है। मंच का उद्देश्य आम लोगों की आवाज़ को बढ़ाना और उनकी चिंताओं और विचारों पर ध्यान आकर्षित करना है।
जनता की आवाज, ब्रेकिंग न्यूज *मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल का पहला बजट: मेहनतकश जनता पर आर्थिक बोझ बढ़ाते हुए पूँजीपतियों के और ज़्यादा मुनाफ़ों का इंतज़ाम – संपादकीय*
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा सातवाँ बजट पेश करने से पहले मोदी सरकार द्वारा दिए गए संकेतों में ही साफ़ हो गया था कि इस बार के बजट में मेहनतकश जनता के लिए कुछ नहीं होगा। 2023-24 के आर्थिक सर्वेक्षण ने स्पष्ट कर दिया था कि अथाह मुनाफ़े कमा रहे देश के अरबपतियों की दौलत को मोदी सरकार बिल्कुल हाथ नहीं लगाएगी, बल्कि मेहनतकश जनता को मिलने वाली सुविधाओं पर कटौती की जाएगी, पूँजीपतियों को और ज़्यादा छूटें देकर उनका मुनाफ़ा बढ़ाने के मौक़े पैदा किए जाएँगे। रोज़गार पैदा करने की कोई भी ज़िम्मेदारी नहीं उठाएगी, यानी बढ़ती बेरोज़गारी से निपटने के लिए सरकार ख़ुद कुछ नहीं करेगी, बल्कि प्राइवेट सेक्टर को नौकरियाँ पैदा करने की अपीलें करेगी और इसी बहाने उन्हें धन लुटाया जाएगा।
बजट क्या है?
बजट सरकार की एक साल की आमदनी और ख़र्चे का अनुमानित लेखा-जोखा होता है। सरकार की आमदनी और ख़र्चों का वितरण इस बात पर निर्भर करता है कि राज्यसत्ता पर किस वर्ग का राज है। चूँकि मौजूदा पूँजीवादी ढाँचे में पूँजीपति सरकार चलाते हैं, इसलिए बजट भी इनके ही हितों को ध्यान में रखकर बनाया जाता है। पूँजीपतियों के हितैषी बजट में मेहनतकश जनता से आमदनी छीनकर पूँजीपतियों के हवाले करने, उनके मुनाफ़े बढ़ाने का ख़ाका तैयार किया जाता है। इसीलिए ऐसे बजट में सरकार की आय का मुख्य स्रोत मेहनतकश जनता पर लगाया जाने वाला प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष टैक्स होता है, जिससे होने वाली आमदनी को बाद में बड़े पूँजीपतियों और परजीवी राज्य मशीनरी को क़ायम रखने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
बजट की विस्तृत चर्चा से पहले सरकार के आमदनी के स्रोतों के बारे में बात करना ज़रूरी है, ताकि देखा जा सके कि सरकार अपनी आय के लिए मुख्य तौर पर मेहनतकशों पर लगाए जाने वाले टेक्सों पर निर्भर है। बजट में बताया गया है कि यूनियन सरकार (भारत सरकार) का कुल ख़र्चा इस वित्तीय साल के लिए 48.20 लाख करोड़ रुपए होगा। लेकिन इसके उलट सरकार की आमदनी महज़ 32.07 लाख करोड़ रुपए ही है। यानी सरकार का राजकोषीय घाटा 16.13 लाख करोड़ रुपए का रहेगा। अगर सरकार की आमदनी ख़र्चों से कम होगी, तो वह बकाया राशि कहाँ से आएगी? जवाब है – क़र्ज़ों और अन्य देनदारियों से। सरकार की ब्याज़ देनदारी बढ़कर 11.62 लाख करोड़ रुपए होने का अनुमान है। सीधे शब्दों में कहें तो सरकार मौजूदा देनदारियों को भविष्य की पीढ़ियों पर क़र्ज़ा थोपकर पूरा कर रही है। सरकार की आय का एक तिहाई हिस्सा लोगों पर बोझ डालने वाले ऐसे उधारों से आएगा। इसके अलावा अन्य 28 फ़ीसदी राशि जी.एस.टी., कस्टम और उत्पाद करों (एक्साइज़ शुल्क) से आएगी। यानी सरकार की आमदनी का 63% सीधे आम लोगों की बचत, विभिन्न टैक्सों से आएगा। पूँजीपतियों पर लगाए जाने वाले कारपोरेट टैक्स या मध्यम/अमीर वर्ग पर लगने वाले इनकम टैक्स से सरकार की आमदनी का केवल 30-35% ही आता है। बड़े पूँजीपतियों की आमदनी पिछले सालों में दोगुनी से भी ज़्यादा बढ़ जाने के बावजूद मोदी सरकार उन पर कोई नया टैक्स नहीं लगा रही है, बल्कि कटौती कर रही है। अब आगे बजट की चर्चा पर चलते हैं।
बजट में मेहनतकश जनता की सुविधाओं में कटौती
हर साल के बजट में सरकार द्वारा दावा किया जाता है कि मोदी सरकार लगातार बुनियादी ढाँचे पर होने वाले बजट ख़र्चे को लगातार बढ़ा रही है। साल 2022-23 में पूँजी ख़र्चा 7.20 लाख करोड़ था, जो 2023-24 में बढ़कर 9.48 लाख करोड़ हो गया और इस बार के बजट में और बढ़कर 11.11 लाख करोड़ रुपए कर दिया गया है। बुनियादी ढाँचे पर सरकारी ख़र्चे के असल मक़सद को समझने की ज़रूरत है। सड़कों, हवाई अड्डों, बंदरगाहों और अन्य बुनियादी ढाँचे पर होने वाला यह सरकारी ख़र्चा भी असल में पूँजीपतियों के मुनाफ़े बढ़ाने के लिए ख़र्च की जाने वाली ही रक़म है, क्योंकि बुनियादी ढाँचे के ये सभी प्रोजेक्ट सार्वजनिक-निजी भागीदारी के तहत चलाए जाएँगे, यानी सरकार इन प्रोजेक्टों को बनाकर पूँजीपतियों के हवाले कर देगी। दूसरा, ऐसे प्रोजेक्ट पूँजीपतियों की लागत घटाने का काम करते हैं, जिसके ज़रिए भी कुल मिलाकर उन्हें अपने मुनाफ़े बढ़ाने में ही मदद मिलती है।
सरकार अपनी आमदनी मेहनतकश जनता पर टैक्स लगाकर जुटाती है। लेकिन क्या सरकार इस आमदनी से मेहनतकश जनता की भलाई के लिए कुछ कर रही है? नहीं! इसे हम अलग-अलग शर्तों के तहत सरकार द्वारा किए जाने वाले ख़र्चों के ज़रिए समझ सकते हैं।
इस बजट में मोदी सरकार ने पेंशन और विकलांगता योजनाओं के लिए 2023-24 में रखे 9,652 करोड़ रुपए के बजट में इस साल बिल्कुल भी बढ़ौतरी नहीं की। अगर इसमें महँगाई का हिस्सा जोड़ दिया जाए तो असल में इस योजना का बजट कम ही हुआ है। आगे, एक तरफ़ तो मोदी सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून योजना के तहत मुफ़्त राशन को बढ़ाने की बात करती है, लेकिन वहीं दूसरी तरफ़ इस बजट में सरकार ने खाद्य सब्सिडी को पिछले साल के 2.12 लाख करोड़ से घटाकर 2.05 लाख करोड़ रुपए कर दिया है।
मोदी सरकार द्वारा जनकल्याण योजनाओं पर की गई कटौती को अगर पिछले साल की कटौतियों की रोशनी में देखें, तो और भी भयानक तस्वीर सामने आती है। पिछले 8-9 साल में खाद्य सब्सिडी, शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य समाज कल्याण संबंधी ख़र्चों में बड़े पैमाने पर कटौती की गई है। उदाहरण के लिए खाद्य सब्सिडी जोकि 2015-16 में कुल बजट का 7.70 फ़ीसदी हुआ करती थी, अब 2024-25 में घटकर केवल 4.26 फ़ीसदी रह गई है। इसी तरह समाज कल्याण ख़र्चे 1.70 फ़ीसदी से घटकर कुल बजट का 1.10 फ़ीसदी, शिक्षा पर ख़र्चा 3.75 फ़ीसदी से घटकर 2.50 फ़ीसदी, स्वास्थ्य पर ख़र्चा 1.91 फ़ीसदी से घटकर 1.85 फ़ीसदी रह गया है। यानी जनकल्याण की कोई ऐसी मद नहीं है, जिसमें पिछले 8-9 साल में मोदी हुकूमत द्वारा कटौती ना की गई हो।
अगर स्वास्थ्य की बात करें, तो सरकार ने इस साल के बजट में 1.09 लाख करोड़ रुपए रखे हैं, जो पिछले साल के रखे गए 1.04 लाख करोड़ रुपए के बजट से मामूली बढ़ौतरी है। लेकिन सरकार की नालायक़ी देखिए कि पिछले साल के 1.04 लाख करोड़ रुपए के स्वास्थ्य बजट में से भी पूरे ख़र्चे नहीं गए और संशोधित करके केवल 91,633 करोड़ रुपए ही स्वास्थ्य बजट में लगाए गए। आज भारत में सरकारी अस्पतालों और जो सरकारी अस्पताल हैं भी उनमें डॉकटरों की भारी कमी है। अगर गाँवों, पिछड़े इलाक़ों को देखें तो कई-कई किलोमीटर तक कोई ढंग का प्राथमिक क्लीनिक भी मौजूद नहीं है, अस्पताल की तो बात ही क्या करेंगे! आज भी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों, स्टाफ़ और दवाओं की भारी कमी है, लेकिन इसे बढ़ाने के लिए सरकार की ओर से कोई घोषणा नहीं की गई है। इसी तरह एनम नर्सों की संख्या में भी 2014 की तुलना में कमी आई है, जबकि ज़रूरत इस समय इसे और बढ़ाने की थी। पिछले दिनों में कितनी ही रिपोर्टें आई हैं कि सरकार द्वारा आयुष्मान योजना के बकाया ना देने के कारण अस्पतालों में मरीजों के इलाज नहीं किए जा रहे, लेकिन इस योजना का विस्तार करने के लिए सरकार के पास कुछ नहीं है। जहाँ तक दवाओं का सवाल है, तो सभी जानते हैं कि निजी कंपनियों द्वारा मरीजों को महँगी दवाओं के नाम पर बुरी तरह से लूटा जाता है। इसके बावजूद मोदी सरकार ने बजट में 2,143 करोड़ रुपए निजी कंपनियों के लिए रख दिए हैं, लेकिन सस्ती दवाएँ बनाने वाली सरकारी कंपनियाँ, जिनका मोदी हुकूमत ने पूरी तरह से भट्ठा बिठा दिया है, के लिए कोई घोषणा नहीं हुई। एक ओर तो ‘विश्वगुरु’ कहलाने वाली भारत सरकार ‘सर्वव्यापी स्वास्थ्य सुविधाओं’ के कार्यक्रम पर हस्ताक्षर करके विश्व स्तर पर झूठी धूम मचा रही है, दूसरी तरफ़ स्वास्थ्य क्षेत्र और कुल घरेलू उत्पादन का डेढ़ फ़ीसदी से भी कम ख़र्च करके लोगों को इलाज के लिए बड़े-बड़े मगरमच्छों के सामने फेंक रही है।
शिक्षा के क्षेत्र में सरकार पहले ही ‘नई शिक्षा नीति 2020’ लागू कर शिक्षा को मेहनतकशों के बच्चों से छीनने की घातक योजना लेकर आई थी। कहने को शिक्षा बजट में लगभग 8% की बढ़ौतरी करके 1.20 लाख करोड़ तक किया गया है, लेकिन असल में स्कूली शिक्षा और साक्षरता का बजट 72,474 करोड़ रुपए से महज़ 1% बढ़ाकर 73,008 करोड़ रुपए ही किया गया है, जो महँगाई को देखते हुए असल में घटा ही है। यह कुल बजट का 2.51% है, जो पिछले साल के 2.57% से कम है। यह सरकार के शिक्षा पर घरेलू उत्पादन के 6% तक ख़र्च करने की खोखली घोषणा से बहुत कम है। दूसरा, शिक्षा के बजट में से यू.जी.सी. का बजट पिछले साल के 6,409 करोड़ रुपए से 60 फ़ीसदी तक घटाकर 2,500 करोड़ रुपए कर दिया गया है। इससे छात्रों को मिलने वाले वज़ीफ़े और अन्य सुविधाओं में बड़ी कटौती की गई है। यह एक तरह से सरकार द्वारा घोषणा है कि वह जल्द ही यू.जी.सी. का औपचारिक रूप से अंत करने की तैयारी कर चुकी है। अध्यापकों, लेक्चररों की ख़ाली पड़ी लाखों भर्तियों को भरने के लिए कोई घोषणा नहीं की गई है, जिसका सीधा मतलब है कि सरकारी शिक्षा का भट्ठा और बैठेगा, भले ही वह स्कूली शिक्षा हो या कॉलेज, यूनिवर्सिटियों की शिक्षा हो।
बेरोज़गारी बढ़ाती मोदी सरकार
पिछले चुनावों में कम वोट मिलने से यह साफ़ हो गया था कि मोदी सरकार को भले ही फ़ालतू चर्चा के लिए ही सही, लेकिन इस बार के बजट में नौजवानों के लिए सबसे केंद्रीय मुद्दे रोज़गार को जगह देनी ही होगी, और वित्त मंत्री के बजट भाषण का पहला हिस्सा इसी मुद्दे पर केंद्रित था। लेकिन जैसी कि उम्मीद थी, सरकार ने रोज़गार देने की ज़िम्मेदारी ख़ुद उठाने से पूरी तरह हाथ खड़े कर दिए हैं। तो फिर सवाल उठता है कि सरकार रोज़गार देने के लिए क्या योजना बना रही है? रोज़गार देने के लिए बजट में घोषित योजना में दो तरह की योजनाएँ रखी गई हैं।
पहले प्रकार की योजनाएँ रोज़गार से संबंधित सब्सिडियाँ हैं, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मालिकों को दी जाएँगी। महीने के एक लाख तक वेतन वाले कर्मचारियों को तीन कि़स्तों में 15,000 रुपए देने की योजना से फ़ायदा मुख्य रूप से औपचारिक क्षेत्र के एक नाममात्र हिस्से को ही होगा। सब्सिडी का दूसरा हिस्सा, जिसमें सरकार पी.एफ़. स्कीम लागू करने के बदले में कंपनी मालिकों को दो सालों के लिए 3,000 रुपए प्रति महीना देती रहेगी, इसका सीधा फ़ायदा मालिकों को मिलेगा।
योजनाओं के दूसरे भाग में सरकार ने नौजवानों के लिए प्रशिक्षण आदि पर सब्सिडी देने की घोषणा की है, जिसके तहत सरकार नौजवानों को ‘प्रशिक्षित’ करेगी, ताकि वे अधिक “रोज़गार लायक़” बन सकें। यानी इस योजना की घोषणा के बाद सरकार की सोच स्पष्ट समझ में आती है कि सरकार बेरोज़गारी के लिए ख़ुद को ज़िम्मेदार नहीं मानती है, बल्कि उसका मानना है कि नौजवानों के पास ज़रूरी प्रशिक्षण नहीं है कि वे रोज़गार के लायक़ हो! इस योजना को सरकार की अन्य घोषणाओं के साथ जोड़कर देखें, जिनमें इसने देशी-विदेशी पूँजीपतियों को टैक्स रियायतें दी हैं, तो तस्वीर और साफ़ हो जाती है कि सरकार बेरोज़गारी की समस्या का हल निजी पूँजीपतियों को नौजवानों को नौकरियाँ देने के लिए “प्रोत्साहित” करने में देखती है।
जिस देश में 35 साल से कम उम्र के नौजवानों की संख्या कुल आबादी के 65% से अधिक हो, जिस देश में केवल यूनियन सरकार के विभागों के 9.64 लाख पद ख़ाली हों और राज्य सरकार के मिलाकर दसियों लाख अन्य पद ख़ाली हों, जहाँ 2014-22 के बीच सवा सात लाख सरकारी नौकरियों के लिए 22 करोड़ से अधिक नौजवान आवेदन करते हों और जहाँ शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र में लाखों की संख्या में स्टाफ़ की कमी हो, वहाँ सरकार द्वारा पदों को भरने, खस्ता हालात ढाँचे को सुधारने के लिए नई भर्तियाँ करने के बजाय केवल बड़ी कंपनियों को सब्सिडी, टैक्स रियायतों के दरवाज़े-खिड़कियाँ खोल दिए गए हों कि वे इन योजनाओं से “प्रोत्साहित” होकर नए प्रोजेक्ट स्थापित कर सकें, नौजवानों को रोज़गार दें, तो भला ऐसी सरकार और ऐसी योजना से क्या उम्मीद की जा सकती है? यानी बेरोज़गारी के मुद्दे पर वित्त मंत्री की पहाड़ जितनी चर्चा के बाद नीचे से असल में एक चूहा ही निकला है!
रोज़गार के मुद्दे पर सरकार की जनविरोधी नीति को मनरेगा के बजट से भी समझा जा सकता है। मनरेगा योजना के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में 100 दिन का सरकारी काम मिलता है। हालाँकि यह काम गुज़ारे के लिए पूरी तरह से नाकाफ़ी है, इसमें हेराफेरी के कितने ही मामले सामने आते हैं, जिसके चलते इसका दायरा बढ़ाने, इसमें सुधार की माँग मनरेगा मज़दूरों के संगठन लगातार करते रहे हैं। लेकिन इस योजना के लिए 2024-25 में घोषित की गई 86,000 करोड़ रुपए की राशि लगभग पिछले साल के बराबर ही है, भले ही कुछ दिन पहले ही रिपोर्ट आ गई थी कि पिछले साल की इस राशि में से पहले चार महीनों में ही आधी राशि यानी 41,500 करोड़ रुपए ख़र्च किए जा चुके हैं यानी योजना के तहत काम की माँग बहुत ज़्यादा है, फिर भी मनरेगा सरकार द्वारा इस साल का बजट ना बढ़ाने का मतलब है कि बाक़ी आठ महीनों में 44,500 करोड़ रुपए की नाममात्र की राशि से ही काम चलाना होगा। यह एक तरह से इस योजना को तबाह करने वाला क़दम है, जिससे ग्रामीण क्षेत्र में थोड़ी-बहुत ही सही ग़रीब मेहनतकशों को राहत मिलती थी, जबकि ज़रूरत थी कि मनरेगा की तर्ज पर इससे व्यापक योजना शहरी क्षेत्र में भी शुरू की जाए।
इस तरह बजट में शहरी-ग्रामीण मज़दूरों और अन्य मेहनतकशों की बेहतरी के लिए कुछ भी नहीं है। जो है वो उनकी स्थिति और भी बदतर बनाने वाला है। पहले भी पूँजीपतियों के फ़ायदे के लिए बजट बनते आए हैं, उसी तर्ज पर यह बजट भी है। कहने की ज़रूरत नहीं है कि मोदी सरकार के इस बजट का सबसे ज़्यादा फ़ायदा एकाधिकारी पूँजीपति वर्ग को मिलेगा, लेकिन पूँजीपति वर्ग के अन्य हिस्सों के लिए भी ख़ूब फ़ायदे का प्रबंध किया गया है। यह बजट इसी बात का सूचक है कि लुटेरे हुक्मरान मेहनतकशों को कुछ भी थाली में परोसकर नहीं देंगे। मेहनतकश जनता को तो अपनी माँगों, सुविधाओं को लेने के लिए ख़ुद ही एकजुट संघर्ष के लिए आगे आना पड़ेगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें