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28/08/2024

Motivational story

अगस्त 28, 2024 0

 


Short motivational stories in Hindi (35). प्रेरक कहानियां

विषय सूची

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प्रेरक कहानियां पढ़ने के लाभ

कहानी और कथा सुनने-पढ़ने की रुचि मनुष्य में स्वभावतः पाई जाती है। जो शिक्षा या उपदेश निबंध के रूप में पढ़ना और हृदयंगम करना कठिन जान पड़ता है वही कथा-कहानी के रूप में रुचिपूर्वक पढ़ लिया जाता है और समझ में भी आ जाता है। कारण यही है कि निबंध या लेख विवेचनात्मक होते हैं, उनका मर्म ग्रहण करने में बुद्धि को विशेष परिश्रम करना पड़ता है। जिन निबंधों की भाषा अधिक प्रौढ़ अथवा गूढ़ होती है उनके समझने में प्रयत्न भी अधिक करना पड़ता है और उसके लायक विद्या, बुद्धि तथा भाषा ज्ञान सब व्यक्तियों के पास होता भी नहीं।

पर कहानी की बात इससे भिन्न है। वर्णनात्मक प्रसंग सुनने का क्रम आरंभिक अवस्था से ही चलने लगता है। छोटे बच्चे भी कहानी सुनने का आग्रह करते हैं और उसे सुनने के लालच से रात में जगते भी रहते हैं। कम पढ़े व्यक्ति भी कहानी-किस्सा की पुस्तक शौक से पढ़ या सुन लेते हैं। कारण यही कि कहानी में जो घटनाएँ कही जाती हैं उनमें से अधिकांश हमको अपने या अन्य परिचित व्यक्तियों के जीवन में घटी हुई सी जान पड़ती हैं। उन्हें समझ लेने में कुछ कठिनाई नहीं होती। साथ ही कहानीकार उनमें जो थोड़ी बहुत विचित्र अथवा कुतूहल की बातें मिला देता है उससे पाठक का मनोरंजन भी हो जाता है।

यह कहानियां पं. श्री राम शर्मा आचार्य द्वारा लिखी गयी किताब प्रेरणाप्रद कथा से ली गई हैं।

नशा एक बला (Short motivational stories in Hindi)

मुकदमे के लिए कचहरी में हाजिर होने के लिए दो शराबी घर से निकले। शराब की धुन में बोतल झोले में रख ली पर कागज-पत्र घर में ही भूल गए।

घोड़े पर बैठकर चल पड़े। मध्याह्न भोजन के समय दोनों ने शराब भी पी। नशे में धुत, दोनों एक दूसरे से पूछते तो रहे कि कोई चीज भूल तो नहीं रहे, पर यह दोनों में से किसी को भी याद न रहा कि घोड़े पर चढ़कर आए थे, अब वे पैदल यात्रा कर रहे थे।

रात जहाँ टिके वहाँ फिर शराब पी। थोड़ी देर में चंद्रमा निकला तो एक बोला”अरे यार! सूरज निकल आया चलो जल्दी करो नहीं तो कचहरी लग जाएगी।” बजाय शहर की ओर चलने के वे गाँव की ओर चल पड़े और सवेरा होते-होते जहाँ से चले वहीं फिर जा पहुँचे। अनुपस्थिति में मुकदमा खारिज हो गया।


मनुष्य की अपूर्णता

(Short motivational stories in Hindi)

ब्रह्माजी की इच्छा हुई “सृष्टि रचें।” उसे क्रियान्वित किया। पहले एक कुत्ता बनाया और उससे उसकी जीवनचर्या की उपलब्धि जानने के लिए पूछा-“संसार में रहने के लिए तुझे कुछ अभाव तो नहीं?” कुत्ते ने कहा-“भगवन्! मुझे तो सब अभाव ही अभाव दिखाई देते हैं, न वस्त्र, न आहार, न घर और न इनके उत्पादन की क्षमता।” ब्रह्माजी बहुत पछताए।

फिर रचना शुरू की-एक बैल बनाया। जब अपना जीवनक्रम पूर्ण करके वह ब्रह्मलोक पहुँचा तो उन्होंने उससे भी यही प्रश्न किया। बैल दुखी होकर बोला-“भगवन्! आपने भी मुझे क्या बनाया, खाने के लिए सूखी घास, हाथ-पाँवों में कोई अंतर नहीं, सींग और लगा दिए। यह भोंडा शरीर लेकर कहाँ जाऊँ।”

तब ब्रह्माजी ने एक सर्वांग सुंदर शरीरधारी मनुष्य पैदा किया। उससे भी ब्रह्माजी ने पूछा-“वत्स, तुझे अपने आप में कोई अपूर्णता तो नहीं दिखाई देती?” थोड़ा ठिठक कर नवनिर्मित मनुष्य ने अनुभव के आधार पर कहा-“भगवन्! मेरे जीवन में कोई ऐसी चीज नहीं बनाई जिसे मैं प्रगति या समृद्धि कहकर संतोष कर सकता।”

ब्रह्माजी गंभीर होकर बोले-“वत्स! तुझे हृदय दिया, आत्मा दी, अपार क्षमता वाला उत्कृष्ट शरीर दिया। अब भी तू अपूर्ण है तो तुझे कोई पूर्ण नहीं कर सकता।”


पात्रता की परीक्षा (Short motivational stories in Hindi)

एक महात्मा के पास तीन मित्र गुरु-दीक्षा लेने गए। तीनों ने बड़े नम्र भाव से प्रणाम करके अपनी जिज्ञासा प्रकट की। महात्मा ने शिष्य बनाने से पूर्व पात्रता की परीक्षा कर लेने के मंतव्य से पूछा-“बताओ कान और आँख में कितना अंतर है?”

एकने उत्तर दिया-“केवल पाँच अंगुल का, भगवन्!” महात्मा ने उसे एक ओर खड़ा करके दूसरे से उत्तर के लिए कहा। दूसरे ने उत्तर दिया-“महाराज आँख देखती है और कान सुनते हैं, इसलिए किसी बात की प्रामाणिकता के विषय में आँख का महत्त्व अधिक है।” महात्मा ने उसको भी एक ओर खड़ा करके तीसरे से उत्तर देने के लिए कहा। तीसरे ने निवेदन किया-“भगवन्! कान का महत्त्व आँख से अधिक है।

आँख केवल लौकिक एवं दृश्यमान जगत को ही देख पाती है, किंतु कान को पारलौकिक एवं पारमार्थिक विषय का पान करने का सौभाग्य प्राप्त है।” महात्मा ने तीसरे को अपने पास रोक लिया। पहले दोनों को कर्म एवं उपासना का उपदेश देकर अपनी विचारणा शक्ति बढ़ाने के लिए विदा कर दिया। क्योंकि उनके सोचने की सीमा ब्रह्म तत्त्व की परिधि में अभी प्रवेश कर सकने योग्य सूक्ष्म बनी न थी।


देवता भी नहीं कर सकते (Short motivational stories in Hindi)

गुरु के दो शिष्य थे। दोनों बड़े ईश्वरभक्त थे। ईश्वर उपासना के बाद वे आश्रम में आए रोगियों की चिकित्सा में गुरु की सहायता किया करते थे।

एक दिन उपासना के समय ही कोई कष्टपीड़ित रोगी आ पहुँचा। गुरु ने पूजा कर रहे शिष्यों को बुला भेजा। शिष्यों ने कहला भेजा”अभी थोड़ी पूजा बाकी है, पूजा समाप्त होते ही आ जाएँगे।”

गुरुजी ने दुबारा फिर आदमी भेजा। इस बार शिष्य आ गए। पर उन्होंने अकस्मात बुलाए जाने पर अधैर्य व्यक्त किया। गुरु ने कहा”मैंने तुम्हें इस व्यक्ति की सेवा के लिए बुलाया था, प्रार्थनाएँ तो देवता भी कर सकते हैं, किंतु अकिंचनों की सहायता तो मनुष्य ही कर सकते हैं। सेवा प्रार्थना से अधिक ऊँची है, क्योंकि देवता सेवा नहीं कर सकते।”

शिष्य अपने कृत्य पर बड़े लज्जित हुए और उस दिन से प्रार्थना की अपेक्षा सेवा को अधिक महत्त्व देने लगे।


बासा मन ताजा करो (Short motivational stories in Hindi)

श्रावस्ती का मृगारि श्रेष्ठि करोड़ों मुद्राओं का स्वामी था। वह मन में मुद्राएँ ही गिनता रहता था। उसे धन से ही मोह था। मुद्राएँ ही उसका जीवन थीं। उनमें ही उसके प्राण बसते थे। सोते-जागते मुद्राओं का सम्मोहन ही उसे भुलाए रहता था। संसार में और भी कोई सुख है यह उसने कभी अनुभव ही नहीं किया।

एक दिन वह भोजन के लिए बैठा। पुत्रवधू ने प्रश्न किया”तात! भोजन तो ठीक है न? कोई त्रुटि तो नहीं रही?” मृगारि कहने लगा-“आयुष्मती! आज यह कैसा प्रश्न पूछ रही हो? तुम जैसी सुयोग्य पुत्रवधू भी कहीं त्रुटि कर सकती है, तुमने तो मुझे सदैव ताजे और स्वादिष्ट व्यंजनों से तृप्त किया है।”

विशाखा ने नि:श्वास छोड़ी, दृष्टि नीचे करके कहा-“आर्य! यही तो आपका भ्रम है। मैं आज तक सदैव आपको बासी भोजन खिलाती रही हूँ। मेरी बड़ी इच्छा होती है कि आपको ताजा भोजन कराऊँ पर एषणाओं के सम्मोहन ने आप पर पूर्णाधिकार कर लिया है। खिलाऊँ भी तो आपको उसका सुख न मिलेगा। आपका जीवन बासा हो गया है फिर मैं क्या करूँ।”

मृगारि को सारे जीवन की भूल पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ। अब उसने भक्तिभावना स्वीकार की और धन का सम्मोहन त्यागकर धर्मकर्म में रुचि लेने लगा।

भौतिकता का आकर्षण प्राय: मनुष्य की सदिच्छाओं और भावनाओं को समाप्त कर देता है। उस अवस्था में तुच्छ स्वार्थ के सिवाय जीवन की उत्कृष्टताओं से मनुष्य वंचित रह जाता है।


तलाश (Short motivational stories in Hindi)

एक मनुष्य को संसार से वैराग्य हुआ, उसने कहा-“यह जगत मिथ्या है, माया है, अब मैं इसका परित्याग करके सच्ची शांति की तलाश करूँगा।” आधी रात बीती और वैराग्य लेने वाले ने कहा-“अब वह घड़ी आ गई। मुझे परमात्मा की खोज के लिए निकल पड़ना चाहिए।”

एक बार पार्श्व में लेटी हुई धर्मपत्नी और दुधमुहे बच्चे की ओर सिर उठाकर देखा उसने। बड़ी सौम्य आकृतियाँ थीं दोनों। वैरागी का मन पिघल उठा। उसने कहा-“कौन हो तुम जो मुझे माया में बाँधते हो।” भगवान ने धीमे से कहा-“मैं तुम्हारा भगवान!” लेकिन मनुष्य ने उनकी आवाज नहीं सुनी। उसने फिर कहा-“कौन हैं ये जिनके लिए मैं आत्म-सुख आत्म-शांति खोऊँ?”

एक और धीमी आवाज आई-“बावरे, यही भगवान हैं, इन्हें छोड़कर तू नकली भगवान की खोज में मत भाग।” बच्चा एकाएक चीखकर रो पड़ा। कोई सपना देखा था उसने। माँ ने बच्चे को छाती से लगाकर कहा-“मेरे जीवन आ, मेरी छाती में जो ममत्व है वह तुझे शांति देगा।” बच्चा माँ से लिपटकर सो गया और आदमी अनसुना करके चल दिया। भगवान ने कहा-“कैसा मूर्ख है यह मेरा सेवक, मुझे तजकर मेरी तलाश में भटकने जा रहा है।”


कुछ तो कर यों ही मत मर (Short motivational stories in Hindi)

रायगढ़ के राजा धीरज के अनेक शत्रु हो गए। एक रात शत्रुओं ने पहरेदारों को मिला लिया और महल में जाकर राजा को दवा सुंघा कर बेहोश कर दिया। उसके बाद उन्होंने राजा के हाथ-पाँव बाँधकर एक पहाड़ की गुफा में ले जाकर बंद कर दिया।

राजा को जब होश आया तो अपनी दशा देखकर घबरा उठा। उस अँधेरी गुफा में उसे कुछ करते-धरते न बना। तभी उसे अपनी माता का बताया हुआ मंत्र याद आ गया-“कुछ कर, कुछ कर, कुछ कर।” राजा की निराशा दूर हो गई और उसने पूरी शक्ति लगाकर हाथ-पैरों की डोरी तोड़ डाली। तभी अँधेरे में उसका पैर साँप पर पड़ गया जिसने उसे काट लिया।

राजा फिर घबराया, किंतु फिर तत्काल ही उसे वही मंत्र “कुछ कर, कुछ कर, कुछ कर” याद आ गया। उसने तत्काल कमर से कटार निकाल कर साँप के काटे स्थान को चीर दिया। खून की धार बह उठने से वह फिर घबरा उठा। लेकिन फिर उसी “कुछ कर, कुछ कर, कुछ कर” के मंत्र से प्रेरणा पाकर अपना उत्तरीय फाड़कर घाव पर पट्टी बाँध दी जिससे रक्त बहना बंद हो गया।

इतनी बाधाएँ पार हो जाने के बाद उसे उस अँधेरी गुफा से निकलने की चिंता होने लगी, साथ ही भूख-प्यास भी व्याकुल कर ही रही थी। उसने अँधेरे से निकलने का कोई उपाय न देखा तो पुनः निराश होकर सोचने लगा कि अब तो यहीं पर बंद रहकर भूख-प्यास से तड़पतड़प कर मरना होगा। वह उदास होकर बैठा ही था कि पुनः उसे माँ का बताया हुआ मंत्र “कुछ कर, कुछ कर, कुछ कर”याद आ गया और द्वार के पास आकर गुफा के मुख पर लगे पत्थर को धक्का देने लगा। बहुत बार प्राणपण से जोर लगाने पर अंतत: पत्थर लुढ़क गया और राजा गुफा से निकल कर अपने महल में वापस आ गया।


शबरी की महत्ता (Short motivational stories in Hindi)

 शबरी यद्यपि जाति की भीलनी थी, किंतु उसके हृदय में भगवान की सच्ची भक्ति भरी हुई थी। बाहर से वह जितनी गंदी दीख पड़ती थी, अंदर से उसका अंत:करण उतना ही पवित्र और स्वच्छ था। वह जो कुछ करती भगवान के नाम पर करती, भगवान के दर्शनों की उसे बड़ी लालसा थी और उसे विश्वास भी था कि एक दिन उसे भगवान के दर्शन अवश्य होंगे।

शबरी जहाँ रहती थी उस वन में अनेक ऋषियों के आश्रम थे। उसकी उन ऋषियों की सेवा करने और उनसे भगवान की कथा सुनने की बड़ी इच्छा रहती थी। अनेक ऋषियों ने उसे नीच जाति की होने के कारण कथा सुनाना स्वीकार नहीं किया और श्वान की भाँति दुत्कार दिया। किंतु इससे उसके हृदय में न कोई क्षोभ उत्पन्न हुआ और न निराशा। उसने ऋषियों की सेवा करने की एक युक्ति निकाल ली।

वह प्रतिदिन ऋषियों के आश्रम से सरिता तक का पथ बुहारकर कुश-कंटकों से रहित कर देती और उनके उपयोग के लिए जंगल से लकड़ियाँ काटकर आश्रम के सामने रख देती।शबरी का यह क्रम महीनों चलता रहा, किंतु ऋषि को यह पता न चला कि उनकी यह परोक्ष सेवा करने वाला है कौन? इस गोपनीयता का कारण यह था कि शबरी आधी रात रहे ही जाकर अपना काम पूरा कर आया करती थी।

जब वह कार्यक्रम बहुत समय तक अविरल रूप से चलता रहा तो ऋषियों को अपने परोक्ष सेवक का पता लगाने की अतीव जिज्ञासा हो उठी। निदान उन्होंने एक रात जागकर पता लगा ही लिया कि यह वही भीलनी है जिसे अनेक बार दुत्कार कर द्वार से भगाया जा चुका था।

तपस्वियों ने अंत्यज महिला की सेवा स्वीकार करने में परंपराओं पर आघात होते देखा और उसे उनके धर्म-कर्मों में किसी प्रकार भाग न लेने के लिए धमकाने लगे। मातंग ऋषि से यह न देखा गया। वे शबरी को अपनी कुटी के समीप ठहराने के लिए ले गए। भगवान राम जब वनवास गए तो उन्होंने मातंग ऋषि को सर्वोपरि मानकर उन्हें सबसे पहले छाती से लगाया और शबरी के झूठे बेर प्रेमपूर्वक चख-चखकर खाए।


भगवान का प्यार (Short motivational stories in Hindi)

शाम हुई मनसुख घर लौटे। आज भगवान कृष्ण गौएँ चराने नहीं गए थे। उनका जन्म दिवसोत्सव था। घर में पूजा थी, यशोदा ने उन्हें घर में ही रोक लिया था।

गोप-बालकों ने पूछा-“मनसुख तम तो अनन्य भक्त और सखा हो गोपाल के, फिर आज कृष्ण ने तुम्हें प्रसाद के लिए नहीं पूछा। तुम तो कहते थे गोपाल मेरे बिना अन्न का ग्रास भी नहीं डालते।”

“हाँ-हाँ ग्वालो! ऐसा ही है, तुम्हें विश्वास कहाँ होगा। कन्हाई तो आज भी मेरे पास आए थे। आज तो उन्होंने मुझे अपने हाथ से ही खिलाया था।”

“यह झूठ है” यह कहकर गोप-बालक कृष्ण को पकड़ लाए और कहने लगे-“लो मनसुख! अब तो कृष्ण सामने खड़े हैं, पूछ ले इन्होंने तो आज देहलीज के बाहर पाँव तक नहीं रखा।”

कृष्ण ने गोप-बालकों का समर्थन किया और कहा-“हाँहाँ मनसुख! तुम्हें भ्रम हुआ होगा मैं तो आज बाहर निकला तक नहीं।”

मनसुख ने मुसकराते हुए कहा-“धन्य हो नटवर! तुम्हारी लीलाएँ अगाध हैं, पर क्या आप बता सकते हैं कि यदि आज आप मेरे पास नहीं आए तो आपका यह पीतांबर मेरे पास कहाँ से आ गया। देख लो न अभी भी मिष्टान्न का कुछ अंश इसमें बँधा हुआ है।”

ग्वालों ने पीतांबर खोलकर देखा-वही भोग, वही मिष्टान्न जो पूजा गृह में था, पीतांबर में बंधा था। मनसुख को वह कौन देने गया, किसको पता था?


पश्चाताप (Short motivational stories in Hindi)

बौद्ध धर्म की नास्तिकवादी विचारधारा का खंडन करने के लिए कुमारिल भट्ट ने प्रतिज्ञा की और उसे पूरा करने के लिए उन्होंने तक्षशिला के विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म का गहन अध्ययन पूरा किया। उन दिनों की प्रथा के अनुसार छात्रों को आजीवन बौद्ध धर्म के प्रति आस्थागत रहने की प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी, तभी उन्हें विद्यालय में प्रवेश मिलता था। कुमारिल ने झुठी प्रतिज्ञा ली और शिक्षा समाप्त होते ही बौद्ध मत का खंडन और वैदिक धर्म का प्रसार आरंभ कर दिया।

अपने प्रयत्न में उन्हें सफलता भी बहत मिली। शास्त्रार्थ की धूम मचाकर उन्होंने शून्यवाद की निस्सारता सिद्ध करके लड़खड़ाती हुई वैदिक मान्यताएँ फिर मजबूत बनाईं।

कार्य में सफलता मिली पर कुमारिल का अंत:करण विक्षुब्ध ही रहा। गुरु के सामने की हुई प्रतिज्ञा एवं उन्हें दिलाए हुए विश्वास का घात करने के पाप से उनकी आत्मा हर घड़ी दुखी रहने लगी। अंत में उन्होंने इस पाप का प्रायश्चित करने के लिए अग्नि में जीवित जल जाने का निश्चय किया। इस प्रायश्चित के करुण दृश्य को देखने देश भर के अगणित विद्वान पहुँचे, उन्हीं में आदि शंकराचार्य भी थे।

उन्होंने कुमारिल को प्रायश्चित न करने के लिए समझाते हुए कहा-“आपने तो जनहित के लिए वैसा किया था फिर प्रायश्चित क्यों करें?” इस पर कुमारिल ने कहा-“अच्छा काम भी अच्छे मार्ग से ही किया जाना चाहिए, कुमार्ग पर चलकर श्रेष्ठ काम करने की परंपरा गलत है। मैंने आपत्ति धर्म के रूप में वह छल किया पर उसकी परंपरा आरंभ नहीं करना चाहता।

दूसरे लोग मेरा अनुकरण करते हुए अनैतिक मार्ग पर चलते हुए अच्छे उद्देश्य के लिए प्रयत्न करने लगें तो इससे धर्म और सदाचार ही नष्ट होगा और तब प्राप्त हुए लाभ का कोई मूल्य न रह जाएगा। अतएव सदाचार की सर्वोत्कृष्टता प्रतिपादित करने के लिए मेरा प्रायश्चित करना ही उचित है।”

कुमारिल प्रायश्चित की अग्नि में जल गए, उनकी प्रतिपादित आस्था सदा अमर रहेगी।


रुपया रुपए को खींचता है (Short motivational stories in Hindi)

एक मनुष्य ने कहीं सुना कि रुपया रुपए को खींचता है। उसने इस बात को परखने का निश्चय किया।

सरकारी खजाने में रुपए का ढेर लगा था। वहीं खड़ा होकर वह अपना रुपया दिखाने लगा ताकि ढेर वाले रुपए खिंचकर उसके पास चले आएँ।

बहुत चेष्टाएँ करने पर भी ढेर के रुपए तो न खिंचे वरन असावधानी से उसके हाथ का रुपया छूटकर ढेर में गिर पड़ा।  खजांची का ध्यान इस खटपट की ओर गया तो उस व्यक्ति को संदिग्ध समझकर पकड़वा दिया। पूछताछ हुई तो उसने सारी बात कह सुनाई।

अधिकारी ने हँसते हुए कहा-“जो सिद्धांत तुमने सुना था वह ठीक था, पर इतनी बात तुम्हें और समझनी चाहिए कि ज्यादा चीजें थोड़ी को खींच लेती हैं। ज्यादा रुपए के आकर्षण में तुम्हारा एक रुपया खिंच गया। इस दुनिया में ऐसा ही होता है। बुराई या अच्छाई की शक्तियों में से जो जब भी बढ़ी-चढ़ी होती हैं, तब प्रतिपक्षी विचार के लोग भी बहुमत के प्रवाह में बहने लगते हैं।”


गधों का सत्कार (Short motivational stories in Hindi)

किसी समय एक जंगल में गधे ही गधे रहते थे। पूरी आजादी से रहते, भरपेट खाते-पीते और मौज करते।

एक लोमड़ी को मजाक सूझा। उसने मुँह लटकाकर गधों से कहा-“मैं चिंता से मरी जा रही हूँ और तुम इस तरह मौज कर रहे हो। पता नहीं कितना बड़ा संकट सिर पर आ पहुँचा है।”

गधों ने कहा-“दीदी, भला क्या हुआ, बात तो बताओ।” लोमड़ी ने कहा-“मैं अपने कानों सुनकर और आँखों देखकर आई हूँ। मछलियों ने एक सेना बना ली है और वे अब तुम्हारे ऊपर चढ़ाई करने ही वाली हैं। उनके सामने तुम्हारा ठहर सकना कैसे संभव होगा?”

गधे असमंजस में पड़ गए। उनने सोचा व्यर्थ जान गँवाने से क्या लाभ। चलो कहीं अन्यत्र चलो।जंगल छोड़कर वे गाँव की ओर चल पड़े।

इस प्रकार घबराए हुए गधों को देखकर गाँव के धोबी ने उनका खूब सत्कार किया। अपने छप्पर में आश्रय दिया और गले में रस्सी डालकर खूटे में बाँधते हुए कहा-“डरने की जरा भी जरूरत नहीं। मछलियों से मैं भुगत लूँगा। तुम मेरे बाड़े में निर्भयतापूर्वक रहो। केवल मेरा थोड़ा सा बोझ ढोना पड़ा करेगा।”

गधों की घबराहट तो दूर हुई पर उसकी कीमत महँगी चुकानी पड़ी।


पूर्णता का अहंकार (Short motivational stories in Hindi)

बाप ने बेटे को भी मूर्तिकला ही सिखाई। दोनों हाट में जाते और अपनी-अपनी मूर्तियाँ बेचकर आते। बाप की मूर्ति डेढ़-दो रुपए की बिकती पर बेटे की मूर्तियों का मूल्य आठ-दस आने से अधिक न मिलता।

हाट से लौटने पर बेटे को पास बिठाकर बाप उसकी मूर्तियों में रही हुई त्रुटियों को समझाता और अगले दिन उन्हें सुधारने के लिए समझाता।

यह क्रम वर्षों चलता रहा। लड़का समझदार था, उसने पिता की बातें ध्यान से सुनीं और अपनी कला में सुधार करने का प्रयत्न करता रहा। कुछ समय बाद लड़के की मूर्तियाँ भी डेढ़ रुपए की बिकने लगीं।

बाप अब भी उसी तरह समझाता और मूर्तियों में रहने वाले दोषों की ओर उसका ध्यान खींचता। बेटे ने और भी अधिक ध्यान दिया तो कला भी अधिक निखरी। मूर्तियाँ पाँच-पाँच रुपए की बिकने लगीं।

सुधार के लिए समझाने का क्रम बाप ने तब भी बंद न किया। एक दिन बेटे ने झुंझला कर कहा-“आप तो दोष निकालने की बात बंद ही नहीं करते। मेरी कला अब तो आप से भी अच्छी है, मुझे पाँच रुपए मिलते हैं जबकि आपको दो ही रुपए।”

बाप ने कहा-“पुत्र! जब मैं तुम्हारी उम्र का था तब मुझे अपनी कला की पूर्णता का अहंकार हो गया और फिर सुधार की बात सोचना छोड़ दिया। तब से मेरी प्रगति रुक गई और दो रुपए से अधिक मूल्य की मूर्तियाँ न बना सका। मैं चाहता हूँ वह भूल तुम न करो। अपनी त्रुटियों को समझने और सुधारने का क्रम सदा जारी रखो ताकि बहुमूल्य मूर्तियाँ बनाने वाले श्रेष्ठ कलाकारों की श्रेणी में पहुँच सको।”


नासमझ को समझ दो, वरदान नहीं

(Short motivational stories in Hindi)

एक राजा वन भ्रमण के लिए गया। रास्ता भूल जाने पर भूखप्यास से पीड़ित वह एक वनवासी की झोंपड़ी पर पहुँचा। वहाँ उसे आतिथ्य मिला तो जान बची।

चलते समय राजा ने उस वनवासी से कहा-“हम इस राज्य के शासक हैं। तुम्हारी सज्जनता से प्रभावित होकर अमुक नगर का चंदन बाग तुम्हें प्रदान करते हैं। उसके द्वारा जीवन आनंदमय बीतेगा।”

वनवासी उस परवाने को लेकर नगर अधिकारी के पास गया और बहुमूल्य चंदन का उपवन उसे प्राप्त हो गया। चंदन का क्या महत्त्व है और उससे किस प्रकार लाभ उठाया जा सकता है, उसकी जानकारी न होने से वनवासी चंदन के वृक्ष काटकर उनका कोयला बनाकर शहर में बेचने लगा। इस प्रकार किसी तरह उसके गुजारे की व्यवस्था चलने लगी।

धीरे-धीरे सभी वृक्ष समाप्त हो गए। एक अंतिम पेड़ बचा। वर्षा होने के कारण कोयला न बन सका तो उसने लकड़ी बेचने का निश्चय किया। लकड़ी का गट्ठा लेकर जब बाजार में पहुँचा तो सुगंध से प्रभावित लोगों ने उसका भारी मूल्य चुकाया। आश्चर्यचकित वनवासी ने इसका कारण पूछा तो लोगों ने कहा-“यह चंदन काष्ठ है। बहुत मूल्यवान है। यदि तुम्हारे पास ऐसी ही और लकड़ी हो तो उसका प्रचुर मूल्य प्राप्त कर सकते हो।” ___वनवासी अपनी नासमझी पर पश्चात्ताप करने लगा कि उसने इतना बड़ा बहुमूल्य चंदन वन कौड़ी मोल कोयले बनाकर बेच दिया। पछताते हुए नासमझ को सांत्वना देते हुए एक विचारशील व्यक्ति ने कहा-“मित्र, पछताओ मत, यह सारी दुनिया तुम्हारी ही तरह नासमझ है। जीवन का एक-एक क्षण बहुमूल्य है पर लोग उसे वासना और तृष्णाओं के बदले कौड़ी मोल में गवाते हैं। तुम्हारे पास जो एक वृक्ष बचा है उसी का सदुपयोग कर लो तो कम नहीं। बहुत गँवाकर भी अंत में यदि कोई मनुष्य सँभल जाता है तो वह भी बुद्धिमान ही माना जाता है।”


पढ़ने के साथ गुनो भी (Short motivational stories in Hindi)

एक दुकानदार व्यवहारशास्त्र की पुस्तक पढ़ रहा था। उसी समय एक सीधे-साधे व्यक्ति ने आकर कुतूहलवश पूछा-“क्या पढ़ रहे हो भाई?” इस पर दुकानदार ने झुंझलाते हुए कहा-“तुम जैसे मूर्ख इस ग्रंथ को क्या समझ सकते हैं।” उस व्यक्ति ने हँसकर कहा”मैं समझ गया, तुम ज्योतिष का कोई ग्रंथ पढ़ रहे हो, तभी तो समझ गए कि मैं मूर्ख हूँ।” दुकानदार ने कहा-“ज्योतिष नहीं, व्यवहारशास्त्र की पुस्तक है।” उसने चुटकी ली-“तभी तो तुम्हारा व्यवहार इतना सुंदर है।” दूसरों को अपमानित करने वालों को स्वयं अपमानित होना पड़ता है। पढ़ने का लाभ तभी है जब उसे व्यवहार में लाया जाए।


अपने लिए कम

(Short motivational stories in Hindi)

 “बेटा ले ये दो टुकड़े मिठाई के हैं। इनमें से यह छोटा टुकड़ा अपने साथी को दे देना।”

“अच्छा माँ” और वह बालक दोनों टुकड़े लेकर बाहर आ गया अपने साथी के पास। साथी को मिठाई का बड़ा टुकड़ा देकर छोटा स्वयं खाने लगा। माँ यह सब जंगले में से देख रही थी, उसने आवाज देकर बालक को बुलाया।

“क्यों रे! मैंने तुझसे बड़ा टुकड़ा खुद खाने और छोटा उस बच्चे को देने के लिए कहा था, किंतु तूने छोटा स्वयं खाकर बड़ा उसे क्यों दिया?”

वह बालक सहज बोली में बोला-“माताजी! दूसरों को अधिक देने और अपने लिए कम से कम लेने में मुझे अधिक आनंद आता है।”

माताजी गंभीर हो गईं। वह बहुत देर विचार करती रहीं बालक की इन उदार भावनाओं के संबंध में। उसे लगा सचमुच यही मानवीय आदर्श है और इसी में विश्व शांति की सारी संभावनाएँ निर्भर हैं। मनुष्य अपने लिए कम चाहे और दूसरों को अधिक देने का प्रयत्न करे तो समस्त संघर्षों की समाप्ति और स्नेह-सौजन्य की स्वर्गीय परिस्थितियाँ सहज ही उत्पन्न हो सकती हैं।


ईमानदार गरीब (Short motivational stories in Hindi)

सीलोन में एक जड़ी-बूटी बेचकर गुजारा करने वाला व्यक्ति रहता था। नाम था उसका महता शैसा। उसके घर की आर्थिक स्थिति बहुत ही खराब थी, कई कई दिन भूखा रहना पड़ता। उनकी माता चक्की पीसने की मजदूरी करती, बहिन फूल बेचती तब कहीं गुजारा हो पाता। ऐसी गरीबी में भी उनकी नीयत सावधान थी।

महता एक दिन एक बगीचे में जड़ी-बूटी खोद रहे थे कि उन्हें कई घड़े भरी हुई अशर्फियाँ गड़ी हुई दिखाई दीं। उनके मन में दूसरे की चीज पर जरा भी लालच न आया और मिट्टी से ज्यों का त्यों ढक कर बगीचे के मालिक के पास पहुंचे और उसे अशर्फियाँ गड़े होने की सूचना दी।

बगीचे के मालिक लरोटा की आर्थिक स्थिति भी बहुत खराब हो चली थी। कर्जदार उसे तंग किया करते थे। इतना धन पाकर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। सूचना देने वाले शैसा को उसने चार सौ अशर्फियाँ पुरस्कार में देनी चाही पर उसने उन्हें लेने से इनकार कर दिया और कहा-“इसमें पुरस्कार लेने जैसी कोई बात नहीं, मैंने तो अपना कर्त्तव्य मात्र पूरा किया है।”

बहुत दिन बाद लरोटा ने अपनी बहिन की शादी शैसा से कर दी और दहेज में कुछ धन देना चाहा। शैसा ने वह भी न लिया और अपने हाथ-पैर की मजदूरी करके दिन गुजारे।


छोटी भूल का बड़ा दुष्परिणाम (Short motivational stories in Hindi)

कहते हैं कि कलंग देश का राजा मधुपर्क खा रहा था। उसके प्याले में से थोड़ा सा शहद टपक कर जमीन पर गिर पड़ा।

उस शहद को चाटने मक्खियाँ आ गईं। मक्खियों को इकट्ठी देख छिपकली ललचाई और उन्हें खाने के लिए आ पहुँची। छिपकली को मारने बिल्ली पहुंची। बिल्ली पर दो-तीन कुत्ते टूटे। बिल्ली भाग गई और कुत्ते आपस में लड़कर घायल हो गए।

कुत्तों के मालिक अपने-अपने कुत्तों के पक्ष का समर्थन करने लगे और दूसरे का दोष बताने लगे। उस पर लड़ाई ठन गई। लड़ाई में दोनों ओर की भीड़ बढ़ी और आखिर सारे शहर में बलवा हो गया। दंगाइयों को मौका मिला तो सरकारी खजाना लूट और राजमहल में आग लगा दी।

राजा ने इतने बड़े उपद्रव का कारण पूछा तो मंत्री ने जाँचकर बताया कि भगवान आपके द्वारा असावधानी से गिराया हुआ थोड़ा सा शहद ही इतने बड़े दंगे का कारण बन गया है।

तब राजा समझा कि छोटी सी असावधानी भी मनुष्य के लिए कितना बड़ा संकट उत्पन्न कर सकती है।


स्वप्न पर मत रीझो (Short motivational stories in Hindi)

एक युवक ने स्वप्न में देखा कि वह किसी बड़े राज्य का राजा हो गया है। स्वप्न में मिली इस आकस्मिक विभूति के कारण उनकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा।

प्रात:काल पिता ने काम पर चलने को कहा, माँ ने लकड़ियाँ काट लाने की आज्ञा दी, धर्मपत्नी ने बाजार से सौदा लाने का आग्रह किया। पर युवक ने कोई भी काम न कर एक ही उत्तर दिया-“मैं राजा हूँ, मैं कोई काम कैसे कर सकता हूँ?”

घर वाले बड़े हैरान थे, आखिर किया क्या जाए? तब कमान सँभाली उनकी छोटी बहिन ने। एक-एक कर उसने सबको बुलाकर चौके में भोजन करा दिया। अकेले खयाली महाराज ही बैठे के बैठे रह गए।

शाम हो गई,भूख से आँतें कुलबुलाने लगीं। आखिर जब रहा नहीं गया तो उसने बहन से कहा-“क्यों री! मुझे खाना नहीं देगी क्या?”

बालिका ने मुँह बनाते हुए कहा-“राजाधिराज! रात आने दीजिए, परियाँ आकाश से उतरेंगी, वही आपके उपयुक्त भोजन प्रस्तुत करेंगी। हमारे रूखे-सूखे भोजन से आपको संतोष कहाँ होता?”

व्यर्थ की कल्पनाओं में विचरण करने वाले युवक ने हार मानी और मान लिया कि धरती पर रहने वाले मनुष्य को निरर्थक लौकिक एवं भौतिक कल्पनाओं में ही न डूबे रहना चाहिए वरन जीवन का जो शाश्वत और सनातन सत्य है उसे प्राप्त और धारण करने का प्रयत्न भी करना चाहिए। इतना मान लेने पर ही उसे भोजन मिल सका।


स्वर्ग और नरक भावनाओं में (Short motivational stories in Hindi)

एक गुरु के दो शिष्य थे। दोनों किसान थे। भगवान का भजन_पूजन भी दोनों करते थे। स्वच्छता और सफाई पर भी दोनों की आस्था थी, किंतु एक बड़ा सुखी था, दूसरा बड़ा दुखी।

गुरु की मृत्यु पहले हुई पीछे दोनों शिष्यों की भी। दैवयोग से स्वर्गलोक में भी तीनों एक ही स्थान पर जा मिले, पर स्थिति यहाँ भी पहले जैसी ही थी। जो पृथ्वी में सुखी था, यहाँ भी प्रसन्नता अनुभव कर रहा था और जो आएदिन क्लेश-कलह आदि के कारण पृथ्वी में अशांत रहता था, यहाँ भी अशांत दिखाई दिया।

दुखी शिष्य ने गुरुदेव के समीप जाकर कहा-“भगवन् ! लोग कहते हैं, ईश्वर भक्ति से स्वर्ग में सुख मिलता है पर हम तो यहाँ भी दुखी के दुखी रहे।”

गुरु ने गंभीर होकर उत्तर दिया-“वत्स! ईश्वर भक्ति से स्वर्ग तो मिल सकता है पर सुख और दुःख मन की देन हैं। मन शुद्ध हो तो नरक में भी सुख ही है और मन शुद्ध नहीं तो स्वर्ग में भी कोई सुख नहीं है।”


भय से मुक्ति का उपाय (Short motivational stories in Hindi)

रंभा मोहनदास करमचंद गांधी के परिवार की पुरानी सेविका थी। वह पढ़ी-लिखी नहीं थी, किंतु इतनी धार्मिक थी कि रामायण को हाथ जोड़कर और तुलसी को सिर नवाकर ही अन्न-जल ग्रहण करती थी ।

एक रात बालक गांधी को सोने से पहले डर लगा। उसे लगा कि कोई भूत-प्रेत सामने खड़ा है। डर से उन्हें रात भर नींद नहीं आई। सवेरे रंभा ने लाल-लाल आँखें देखीं, तो उन्होंने गांधी से इसके बारे में पूछा गांधी ने पूरी बात सच सच बता दी ।

रंभा बोली, ‘मेरे पास भय भगाने की अचूक दवा है। जब भी डर लगे, तो राम नाम जप लिया करो। भगवान् राम के नाम को सुनकर कोई बुरी आत्मा पास नहीं फटकती।’

गांधीजी ने यह नुसखा अपनाया, तो उन्हें लगा कि इसमें बहुत ताकत है। बाद में संत लाधा महाराज के मुख से रामकथा सुनकर उनकी राम-नाम में आस्था और सुदृढ़ हो गई। बड़े होने पर गांधीजी ने अनेक ग्रंथों का अध्ययन किया, तो वे समझ गए कि भय से पूरी तरह मुक्ति भी ठीक नहीं होती।

एक बार वर्धा में एक व्यक्ति उनसे मिलने आया। गांधीजी से उसने पूछा, ‘बापू ! पूरी तरह भयमुक्त होने के उपाय बताएँ।’

गांधीजी ने कहा, ‘मैं स्वयं सर्वथा भयमुक्त नहीं हूँ। काम क्रोध ऐसे शत्रु हैं, जिनसे भय के कारण ही बचा जा सकता है। इन्हें जीत लेने से बाहरी भय का उपद्रव अपने-आप मिट जाता है। राग-आसक्ति दूर हो, तो निर्भयता सहज प्राप्त हो जाए। ‘


सफलता की तैयारी (Short motivational stories in Hindi)

शहर  से  कुछ  दूर   एक  बुजुर्ग  दम्पत्ती   रहते  थे .  वो  जगह  बिलकुल  शांत  थी  और  आस -पास  इक्का -दुक्का  लोग  ही  नज़र  आते  थे .

एक  दिन  भोर  में  उन्होंने  देखा  की  एक  युवक  हाथ  में  फावड़ा  लिए  अपनी  साइकिल  से  कहीं   जा  रहा  है , वह  कुछ  देर  दिखाई  दिया  और  फिर  उनकी  नज़रों  से  ओझल  हो  गया .दम्पत्ती   ने  इस  बात  पर  अधिक  ध्यान  नहीं  दिया , पर  अगले  दिन  फिर  वह  व्यक्ति  उधर  से  जाता  दिखा .अब  तो  मानो  ये  रोज  की  ही  बात  बन  गयी , वह  व्यक्ति  रोज  फावड़ा  लिए  उधर  से  गुजरता  और  थोड़ी  देर  में  आँखों  से  ओझल  हो  जाता .

दम्पत्ती   इस  सुन्सान  इलाके  में  इस  तरह  किसी  के  रोज  आने -जाने  से  कुछ  परेशान  हो गए  और  उन्होंने  उसका  पीछा  करने   का  फैसला  किया .अगले  दिन  जब  वह  उनके  घर  के  सामने  से  गुजरा  तो  दंपत्ती   भी  अपनी  गाडी  से  उसके  पीछे -पीछे   चलने  लगे . कुछ  दूर  जाने  के  बाद  वह  एक  पेड़  के  पास  रुक  और  अपनी  साइकिल  वहीँ  कड़ी  कर  आगे  बढ़ने  लगा . १५-२० कदम चलने के बाद वह रुका  और अपने  फावड़े  से ज़मीन  खोदने लगा .

दम्पत्ती को  ये  बड़ा  अजीब  लगा  और  वे  हिम्मत  कर  उसके  पास  पहुंचे  ,“तुम  यहाँ  इस  वीराने  में   ये  काम  क्यों   कर  रहे  हो ?”

युवक  बोला  , “ जी,  दो  दिन  बाद  मुझे  एक  किसान  के  यहाँ  काम  पाने  क  लिए  जाना  है , और  उन्हें  ऐसा  आदमी  चाहिए  जिसे  खेतों  में  काम  करने  का  अनुभव  हो , चूँकि  मैंने  पहले  कभी  खेतों  में  काम  नहीं  किया इसलिए  कुछ  दिनों  से  यहाँ  आकार  खेतों में काम करने की तैयारी कर रहा हूँ!!”

 दम्पत्ती  यह  सुनकर  काफी  प्रभावित  हुए  और  उसे  काम  मिल  जाने  का  आशीर्वाद  दिया .

Friends,  किसी  भी  चीज  में  सफलता  पाने  के  लिए  तैयारी  बहुत  ज़रूरी   है . जिस  sincerity के  साथ   युवक  ने  खुद  को  खेतों  में  काम करने  के  लिए  तैयार  किया  कुछ  उसी  तरह  हमें  भी अपने-अपने क्षेत्र में सफलता के लिए खुद  को  तैयार  करना  चाहिए।


अवसर की पहचान (Short motivational stories in Hindi)

एक बार एक ग्राहक चित्रो की दुकान पर गया । उसने वहाँ पर अजीब से चित्र देखे । पहले चित्र मे चेहरा पूरी तरह बालो से ढँका हुआ था और पैरोँ मे पंख थे ।एक दूसरे चित्र मे सिर पीछे से गंजा था।

ग्राहक ने पूछा – यह चित्र किसका है?

दुकानदार ने कहा – अवसर का ।

ग्राहक ने पूछा – इसका चेहरा बालो से ढका क्यो है?

दुकानदार ने कहा -क्योंकि अक्सर जब अवसर आता है तो मनुष्य उसे पहचानता नही है ।

ग्राहक ने पूछा – और इसके पैरो मे पंख क्यो है?

दुकानदार ने कहा – वह इसलिये कि यह तुरंत वापस भाग जाता है, यदि इसका उपयोग न हो तो यह तुरंत उड़ जाता है ।

ग्राहक ने पूछा – और यह दूसरे चित्र मे पीछे से गंजा सिर किसका है?

दुकानदार ने कहा – यह भी अवसर का है । यदि अवसर को सामने से ही बालो से पकड़ लेँगे तो वह आपका है ।अगर आपने उसे थोड़ी देरी से पकड़ने की कोशिश की तो पीछे का गंजा सिर हाथ आयेगा और वो फिसलकर निकल जायेगा । वह ग्राहक इन चित्रो का रहस्य जानकर हैरान था पर अब वह बात समझ चुका था ।

दोस्तो,

आपने कई बार दूसरो को ये कहते हुए सुना होगा या खुद भी कहा होगा कि ‘हमे अवसर ही नही मिला’ लेकिन ये अपनी जिम्मेदारी से भागने और अपनी गलती को छुपाने का बस एक बहाना है । Real मे भगवान ने हमे ढेरो अवसरो के बीच जन्म दिया है । अवसर हमेशा हमारे सामने से आते जाते रहते है पर हम उसे पहचान नही पाते या पहचानने मे देर कर देते है । और कई बार हम सिर्फ इसलिये चूक जाते है क्योकि हम बड़े अवसर के ताक मे रहते हैं । पर अवसर बड़ा या छोटा नही होता है । हमे हर अवसर का भरपूर उपयोग करना चाहिये ।


धर्म का सौदा (Short motivational stories in Hindi)

तथागत एक बार काशी में एक किसान के घर भिक्षा माँगने चले गए। भिक्षा पात्र आगे बढ़ाया। किसान ने एक बार उन्हें ऊपर से नीचे तक देखा। शरीर पूर्णांग था। वह किसान कर्म पूजक था। गहरी आँखों से देखता हुआ बोला-“मैं तो किसान हूँ। अपना परिश्रम करके अपना पेट भरता हूँ। साथ में और भी कई व्यक्तियों का। तुम क्यों बिना परिश्रम किए भोजन प्राप्त करना चाहते हो?”

बुद्ध ने अत्यंत ही शांत स्वर में उत्तर दिया-“मैं भी तो किसान हूँ। मैं भी खेती करता हूँ।” किसान ने आश्चर्य से भरकर प्रश्न किया-“फिर……..अब क्यों भिक्षा माँग रहे हैं?”

भगवान बुद्ध ने किसान की शंका का समाधान करते हुए कहा”हाँ वत्स! पर वह खेती आत्मा की है। मैं ज्ञान के हल से श्रद्धा के बीज बोता हूँ। तपस्या के जल से सींचता हूँ। विनय मेरे हल की हरिस, विचारशीलता फाल और मन नरैली है। सतत अभ्यास का यान, मुझे उस गंतव्य की ओर ले जा रहा है जहाँ न दुःख है न संताप, मेरी इस खेती से अमरता की फसल लहलहाती है। तब यदि तुम मुझे अपनी खेती का कुछ भाग दो…….और मैं तुम्हें अपनी खेती का कुछ भाग दूं तो क्या यह सौदा अच्छा न रहेगा।”

किसान की समझ में बात आ गई और वह तथागत के चरणों में अवनत हो गया।


नकल अच्छी नहीं (Short motivational stories in Hindi)

 एक व्यापारी एक घोड़े पर नमक और एक गधे पर रूई की गाँठ लादे जा रहा था। रास्ते में एक नदी पड़ी। पानी में फँसते ही घोड़े ने पानी में डुबकी लगाई तो काफी नमक पानी में घुल गया। गधे ने घोड़े से पूछा-यह क्या कर रहे हो? घोड़े ने उत्तर दिया-वजन हलका कर रहा हूँ। यह सुनकर गधे ने भी दो डुबकी लगाईं पर उससे गाँठ भीगकर इतनी भारी हो गई कि उसे ढोने में गधे की जान आफत में पड़ गई। सच है नकल के लिए भी बड़ी अकल चाहिए।


खाँड़ के खिलौने (Short motivational stories in Hindi)

एक गृहस्थ तीन खाँड़ के खिलौने लाया जो कि तीन साधुओं की मूर्तियाँ थीं। संयोगवश उसके यहाँ तीन अतिथि साधु भोजन करने आए। गृहस्थ ने उन्हें बड़ी श्रद्धा से बैठाया। इतने ही में गृहस्थ का एक छोटा लड़का आया वह उन खिलौनों को लेकर पूछने लगा-“यह क्या है, पिताजी!” गृहस्थ बोला-“यह साधू है।” बालक ने पूछा, “इनका क्या होगा?” गृहस्थ ने कहा-“इन्हें खाएँगे।” लड़का बोला, कब। गृहस्थ बोला-“पहले इन साधुओं को भोजन कराकर हम खाना खा लें फिर एक-एक तीनों खा लेंगे।”

गृहस्थ तो इस प्रकार अपने बालक को उन खाँड़ के खिलौनों के बारे में बतला रहा था, उधर साधुओं ने समझा कि यह बातचीत उनके बारे में चल रही है। यह समझकर साधु उनके यहाँ से भागे, गृहस्थ को बड़ा अचरज हुआ, वह उनके पीछे भागा। वे लोग एक जगह रुके, थक गए तो गृहस्थ ने उनके भागने का कारण पूछा। साधुओं ने कहा कि तुम हमें मार डालना चाहते थे,हम तुम्हारी सब बात सुन रहे थे। गृहस्थ ने कहा-“महाराज मैं तो बालक से खाँड़ के खिलौनों के बारे में बातचीत कर रहा था।” तब साधुओं की समझ में आया और वे फिर वापस उसके घर गए और भोजन किया। मन की दुर्बलता से लोग ऐसे ही डरे रहते हैं जब कि वास्तविकता कुछ और ही होती है।


विवेक सबसे बड़ा धर्म (Short motivational stories in Hindi)

मअद को यमन का शासक नियुक्त किया गया। राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में जन-उत्सव संपन्न हुआ, बहुत सी प्रजा अभिषेक देखने आई। मअद बड़े नेक और ईश्वर भक्त राजकुमार थे।

ताज धारण कराने से पूर्व राजपुरोहित ने प्रश्न किया-“आपके सामने जो मामले मुकदमे आएँगे उन्हें किस प्रकार हल करेंगे।” मअद ने उत्तर दिया-“कुरान शरीफ को आधार मानकर, जो कुरान के सिद्धांत के अनुसार होगा उसी का समर्थन करूँगा।”

पर यदि कुरान में वह बात न लिखी हो तो?”तब मैं धर्माचार्यों और जिन पर प्रजा का विश्वास है ऐसे पैगंबरों का निर्देश प्राप्त करूँगा।” मअद ने उत्तर दिया।

 “यदि वह भी उपलब्ध न हो तो?” राजपुरोहित ने फिर प्रश्न किया।

“तब मैं अपने विवेक के अनुसार न्याय करने का यत्न करूँगा” मअद ने विनीत उत्तर दिया।


मरने से डरना क्या? (Short motivational stories in Hindi)

राजा परीक्षित को भागवत सुनाते हुए जब शुकदेव जी को छह दिन बीत गए और सर्प के काटने से मृत्यु होने का एक दिन रह गया

तब भी राजा का शोक और मृत्यु भय दूर न हुआ। कातर भाव से अपने मरने की घड़ी निकट आती देखकर वह क्षुब्ध हो रहा था।

शुकदेव जी ने परीक्षित को एक कथा सुनाई-राजन! बहुत समय पहले की बात है, एक राजा किसी जंगल में शिकार खेलने गया। संयोगवश वह रास्ता भूलकर बड़े घने जंगल में जा निकला, रात्रि हो गई वर्षा पड़ने लगी। सिंह व्याघ्र बोलने लगे। राजा बहुत डरा और किसी प्रकार रात्रि बिताने के लिए विश्राम का स्थान ढूँढ़ने लगा। कुछ दूरी पर उसे दीपक दिखाई दिया। वहाँ पहुँचकर उसने एक गंदे बीमार बहेलिए की झोंपड़ी देखी। वह चल-फिर नहीं सकता था इसलिए झोंपड़ी में ही एक ओर उसने मल मूत्र त्यागने का स्थान बना रखा था। अपने खाने के लिए जानवरों का मांस उसने झोंपड़ी की छत पर लटका रखा था। बड़ी गंदी, छोटी, अंधेरी और दुर्गंधयुक्त वह कोठरी थी। उसे देखकर राजा पहले तो ठिठका, पर पीछे उसने और कोई आश्रय न देखकर उस बहेलिए से अपनी कोठरी में रातभर ठहर जाने देने के लिए प्रार्थना की।

बहेलिए ने कहा-“आश्रय के लोभी राहगीर कभी-कभी यहाँ आ भटकते हैं और मैं उन्हें ठहरा लेता हूँ तो दूसरे दिन जाते समय बहुत झंझट करते हैं। इस झोंपड़ी की गंध उन्हें ऐसी भा जाती है कि फिर उसे छोड़ना ही नहीं चाहते, इसी में रहने की कोशिश करते हैं और अपना कब्जा जमाते हैं। ऐसे झंझट में मैं कई बार पड़ चुका हूँ। अब किसी को नहीं ठहरने देता। आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूँगा।” राजा ने प्रतिज्ञा की, कसम खाई कि वह दूसरे दिन इस झोंपड़ी को अवश्य खाली कर देगा। उसका काम तो बहुत बड़ा है। यहाँ तो वह संयोगवश ही आया है सिर्फ एक रात काटनी है।

बहेलिए ने अन्यमनस्क होकर राजा को झोंपडी के कोने में ठहर जाने दिया, पर दूसरे दिन प्रात:काल ही बिना झंझट किए झोंपड़ी खाली कर देने की शर्त को फिर दोहरा दिया। राजा एक कोने में पड़ रहा। रात भर सोया। सोने में झोंपड़ी की दुर्गंध उसके मस्तिष्क में ऐसी बस गई कि सवेरे उठा तो उसे वही सब परमप्रिय लगने लगा। राजकाज की बात भूल गया और वहीं निवास करने की बात सोचने लगा।

प्रात:काल जब राजा और ठहरने के लिए आग्रह करने लगा तो बहेलिए ने लाल-पीली आँखें निकाली और झंझट शुरू हो गया। झंझट बढ़ा। उपद्रव और कलह का रूप धारण कर लिया। राजा मरने-मारने पर उतारू हो गया। उसे छोड़ने में भारी कष्ट और शोक अनुभव करने लगा।

शुकदेव जी ने पूछा-“परीक्षित बताओ, उस राजा के लिए क्या यह झंझट उचित था?” परीक्षित ने कहा-“भगवन्! वह कौन राजा था, उसका नाम तो बताइए। वह तो बड़ा मूर्ख मालूम पड़ता है कि ऐसी गंदी कोठरी में, अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर राजकाज छोड़कर, नियत अवधि से भी अधिक रहना चाहता था। उसकी मूर्खता पर तो मुझे भी क्रोध आता है।”

शुकदेव जी ने कहा-“परीक्षित! वह मूर्ख तू ही है। इस मलमूत्र की गठरी देह में जितने समय तेरी आत्मा को रहना आवश्यक था वह अवधि पूरी हो गई। अब उस लोक को जाना है जहाँ से आया था। इस पर भी तू झंझट फैला रहा है। मरना नहीं चाहता, मरने का शोक कर रहा है। क्या यह तेरी मूर्खता नहीं है?”


संघर्ष से बड़ी शक्ति नहीं (Short motivational stories in Hindi)

द्रोणाचार्य कौरव सेना के सेनापति नियुक्त हुए। पहले दिन का युद्ध वीरतापूर्वक लड़े तो भी विजयश्री अर्जुन के हाथ रही।

यह देखकर दुर्योधन को बड़ी निराशा हुई। वह गुरु द्रोणाचार्य के पास गए और कहा-“गुरुदेव! अर्जुन तो आपका शिष्य मात्र है, आप तो उसे क्षणभर में परास्त कर सकते हैं, फिर यह देर क्यों?”

द्रोणाचार्य गंभीर हो गए और कहा-“आप ठीक कहते हैं, अर्जुन मेरा शिष्य है, उसकी सारी विद्या से मैं परिचित हूँ, किंतु उसका जीवन कठिनाई से संघर्ष करने में रहा है और मेरा सुविधापूर्वक दिन बिताने का रहा है। विपत्ति ने उसे मुझसे भी अधिक बलवान बना दिया है।”


पराया धन धूलि समान (Short motivational stories in Hindi)

भक्त राँका बाँका अपनी स्त्री समेत भगवत उपासना में लगे थे। वे दोनों जंगल से लकड़ी काट-काट अपना गुजारा करते थे और भक्ति भावना में तल्लीन रहते थे। अपने परिश्रम पर ही गुजर करना उनका व्रत था। दान या पराये धन को वे भक्ति मार्ग में बाधक मानते थे। एक दिन राँका बाँका जंगल से लौट रहे थे। रास्ते में मुहरों की थैली पड़ी मिली। वे पैर से उस पर मिट्टी डालने लगे। इतने में पीछे से उनकी स्त्री आ गई। उसने पूछा-“थैली को दाब क्यों रहे हैं?” उसने उत्तर दिया-“मैंने सोचा तुम पीछे आ रही हो कहीं पराई चीज के प्रति तुम्हें लोभ न आ जाए इसलिए उसे दाब रहा था।” स्त्री ने कहा-“मेरे मन में सोने और मिट्टी में कोई अंतर नहीं, आप व्यर्थ ही यह कष्ट कर रहे थे।” उस दिन सूखी लकड़ी न मिलने से उन्हें भूखा रहना पड़ा तो भी उनका मन पराई चीज पर विचलित न हुआ।

पराये धन को धूलि समान समझने वाले, अपने ही श्रम पर निर्भर करने वाले, साधारण दीखने वाले भक्त भी उन लोगों से अनेक गुने श्रेष्ठ हैं जो संत-महंत का आडंबर बनाकर पराये परिश्रम के धन से गुलछर्रे उड़ाते हैं।


धोखा नहीं दूंगा (Short motivational stories in Hindi)

प्राचीन परंपराओं की तुलना में विवेकशीलता का अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतिपादन करने वाले संत सुकरात को वहाँ के कानून से मृत्युदंड की सजा दी गई।

सुकरात के शिष्य अपने गुरु के प्राण बचाना चाहते थे। उन्होंने जेल से भाग निकलने के लिए एक सुनिश्चित योजना बनाई और उसके लिए सारा प्रबंध ठीक कर लिया।

प्रसन्नता भरा समाचार देने और योजना समझाने को उनका एक शिष्य जेल में पहुँचा और सारी व्यवस्था उन्हें कह सुनाई। शिष्य को आशा थी कि प्राण-रक्षा का प्रबंध देखकर उनके गुरु प्रसन्नता अनुभव करेंगे।

सुकरात ने ध्यानपूर्वक सारी बात सुनी और दुखी होकर कहा”मेरे शरीर की अपेक्षा मेरा आदर्श श्रेष्ठ है। मैं मर जाऊँ और मेरा आदर्श जीवित रहे तो वही उत्तम है। किंतु यदि आदर्शों को खोकर जीवित रह सका तो वह मृत्यु से भी अधिक कष्टकारक होगा। न तो मैं सहज विश्वासी जेल कर्मचारियों को धोखा देकर उनके लिए विपत्ति का कारण बनूँगा और न जिस देश की प्रजा हूँ, उसके कानूनों का उल्लंघन करूँगा। कर्त्तव्य मुझे प्राणों से अधिक प्रिय हैं।”

योजना रद्द करनी पड़ी। सुकरात ने हँसते हुए विष का प्याला पिया और मृत्यु का संतोषपूर्वक आलिंगन करते हुए कहा-“हर भले आदमी के लिए यही उचित है कि वह आपत्ति आने पर भी कर्तव्यधर्म से विचलित न हो।”


शिक्षा देने से पहले (Short motivational stories in Hindi)

सातवर्षीय बालक को माँ पीटे जा रही थी। पड़ोस की एक महिला ने जाकर बचाया उसे। पूछने पर उसकी माँ ने बताया कि यह मंदिर में से चढ़ौती के आम तथा पैसे चुराकर लाया है, इसीलिए पीट रही हूँ इसे। उक्त महिला ने बड़े प्यार से उस बच्चे से पूछा-“क्यों बेटा! तुम तो बड़े प्यारे बालक हो। चोरी तो गंदे बच्चे करते हैं। तुमने ऐसा क्यों किया?”

बार-बार पूछने पर सिसकियों के बीच से बोला-“माँ भी तो रोज ऊपर वाले चाचाजी के दूध में से आधा निकाल लेती हैं और उतना ही पानी डाल देती हैं और हमसे कहती हैं कि उन्हें बताना मत। मैंने तो आज पहली बार ही चोरी की है।”

महिला के मुँह की आभा देखते ही बनती थी उस समय। वास्तव में बच्चों के निर्माण में घर का वातावरण बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।


जैसा खाया अन्न वैसा बना मन

शरशैया पर पड़े हुए भीष्म पितामह उत्तरायण सूर्य आने पर प्राण त्यागने की तैयारी में लगे थे।

कुरु और पांडु कुल के नर-नारी उन्हें घेरे बैठे थे। पितामह ने उचित समझा कि उन्हें कुछ धर्मोपदेश दिया जाए। वे धर्म और सदाचार की विवेचना करने लगे।

सब ध्यानपूर्वक सुन रहे थे पर द्रोपदी के चेहरे पर व्यंग हास की हलकी सी रेखा दौड़ रही थी।

भीष्म ने उसे देखा और अभिप्राय को समझा।

वे बोले-“बेटी! मेरी कल की करनी और आज की कथनी में अंतर देखकर तुम आश्चर्य मत मानो। मनुष्य जैसा अन्न खाता है वैसा ही उसका मन बनता है। जिन दिनों में राजसभा में तुम्हारा अपमान हुआ था उन दिनों कौरवों का कुधान्य खाने से मेरी बुद्धि मलीन हो रही थी इसलिए तुम्हारे पक्ष में न्याय की आवाज न उठा सका। पर इन दिनों मुझे लंबी अवधि का उपवास करना पड़ा है, सो भावनाएँ स्वतः वैसी हो गईं जैसा कि मैं इस समय धर्मोपदेश में व्यक्त कर रहा हूँ।”

द्रोपदी ने आहार की शुद्धि का महत्त्व समझा और क्षमा प्रार्थना के रूप में अपनी भूल पर दुःख प्रकट करते हुए पितामह के चरणों पर मस्तक झुका दिया।

 

इसी प्रकार की अन्य बहुत ही प्रसिद्ध कहानियों का संग्रह आशा है आपको यह पसंद आएगी।
 

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क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच की प्रेस विज्ञप्ति

अगस्त 28, 2024 0

जनता की आवाज, ब्रेकिंग न्यूज प्रेस विज्ञप्ति 
बाबूलाल यादव क्रांतिकारी 


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नई दिल्ली,28 अगस्त 2024. क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच (कसम) ने केरल फिल्म इंडस्ट्री में यौन उत्पीडन की जांच के लिए बने " हेमा कमिटी" की रपट को पारदर्शी तरीके से लागू करने की मांग केरल सरकार से की।साथ ही केरल फिल्म इंडस्ट्री में यौन उत्पीडन के आरोपियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने की मांग भी राज्य सरकार से की।



विदित हो कि केरल सरकार ने हेमा कमेटी का गठन तुरंत नहीं किया था। केरल में एक मशहूर अभिनेत्री के साथ यौन उत्पीड़न के बाद, WCC सदस्यों द्वारा फिल्म उद्योग में महिलाओं के खिलाफ शोषण और हिंसा को उजागर करने के लिए किए गए बहुत प्रयास के बाद ही हेमा आयोग का गठन किया गया था। रिपोर्ट 2019 में बनाई गई थी और इसे जारी होने में लगभग 5 साल लग गए। इससे भी बदतर यह है कि इस रिपोर्ट के जारी होने में देरी के कारण कई महिला कलाकारों को न्याय से वंचित किया जा रहा है। WCC सदस्यों द्वारा किए गए गहन प्रयास का ही नतीजा है कि यह रिपोर्ट अब सामने आ रही है। यह खुलासा हुआ है कि रिपोर्ट से कई पैराग्राफ और पेज छिपाए गए हैं।


इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद, कई प्रमुख अभिनेताओं पर आरोप लगे। पहला आरोप एक बंगाली अभिनेत्री  रीताभरी चक्रवर्ती ने रंजीत नामक एक बहुत प्रसिद्ध मलयाली निर्देशक के खिलाफ लगाया था । लेकिन आरोप के बाद, केरल  वाम मोर्चा सरकार के सांस्कृतिक और युवा मामलों के मंत्री साजी चेरियन द्वारा जारी किया गया पहला बयान पीड़िता के खिलाफ था और निर्देशक का समर्थन करता हुआ दिखाई दिया जो बहुत निराशाजनक है।  लेकिन आरोपों के बाद उन्होंने मीडिया से कहा कि उन्होंने रिपोर्ट पढ़ी ही नहीं, यह कितनी गैरजिम्मेदाराना प्रतिक्रिया है। दुर्व्यवहार के सबसे ज्यादा आरोप अब माकपा विधायक मुकेश पर लगे हैं।


जब यह रिपोर्ट पहली बार सामने आई थी, तब कहा गया था कि इस पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं होगी। लेकिन कड़े हस्तक्षेप के कारण ही सरकार को जांच के लिए एक टीम नियुक्त करनी पड़ी।


सबसे बड़ी बात यह है कि केरल के कुख्यात "अभिनेत्री  पर यौन हमला मामले" की पीड़िता को अभी भी न्याय नहीं मिल पाया है, जिसे अपने ही एक सह-कलाकार से और भी बदतर शोषण और हमले का सामना करना पड़ा था, यह बात सरकार की विश्वसनीयता को खत्म करती है। इसलिए, क्या गारंटी है कि दूसरों को भी न्याय मिलेगा?

यहां सिर्फ केरल फिल्म इंडस्ट्री की बात नहीं है बॉलीवुड सहित देश के हर क्षेत्र में मर्दवादी  घोर महिला विरोधी मानसिकता के चलते महिलाओं को  हर पल असुरक्षा और हैवानियत के साए में जीना पड़ता है।कोलकाता में युवा डॉक्टर के खिलाफ  हुए दरिंदगी के बाद पूरे देश में आज बारह साल पहले निर्भया मामले की तरह महिला उत्पीड़न के खिलाफ जबरदस्त जागृति देखने को मिल रही है। यह भी तथ्य है कि सबसे ज्यादा महिला विरोधी  क्रूर अत्याचार, पूरे देश में पिछले दस सालों से अधिक समय से सत्तासीन संघी मनुवादी/ ब्राम्हणवादी फासीवादी ताकतों के राज में हो रहे हैं।  आरएसएस फासिस्ट ही  सबसे ज्यादा महिला विरोधी मर्दवादी हैं और मनुस्मृति आधारित हिंदुराष्ट्र बनाने के लिए कटिबद्ध हैं। जिस मनुस्मृति के  अनुसार महिलाओं को दलितों आदिवासियों और उत्पीड़ित वर्गों की तरह मानव का दर्ज़ा नहीं दिया गया है।

क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच (कसम) ,देश भर में महिला उत्पीड़न और घोर मर्दवादी सोच के खिलाफ ,पीड़िताओं के हक में न्याय की मांग कर रहे जन उभार के साथ मजबूती से खड़ा है।


तुहिन, असीम गिरी 

अखिल भारतीय संयोजकद्वय

क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच (कसम)

भारत सरकार द्वारा पेंशन योजना.असहाय सरकारी कर्मचारी

अगस्त 28, 2024 0
सड़क समाचार: वाराणसी, ब्रेकिंग यूनिफाइड पेंशन स्कीम के बारे में आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट का वक्तव्य 
अजय रॉय, नेता, अखिल भारतीय जन मोर्चा 


● यूपीएस कर्मचारियों के जमा धन को लूटने की नीति - आइपीएफ 
● पुरानी पेंशन बहाल करें सरकार 
● सामाजिक सुरक्षा को असंगठित श्रमिकों तक बढ़ाया जाए 

लखनऊ, 27 अगस्त 2024, देश की आजादी के समय भारत के शासक वर्ग ने कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को शासन चलाने की नीति के रूप में ग्रहण किया था। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा जैसे विभिन्न आयाम सरकार की जिम्मेदारी थी। इसी के तहत कर्मचारियों की न्यूनतम आवश्यकता के अनुसार वेतन और सेवानिवृत्ति के बाद वृद्धावस्था में सम्मानजनक जीवन जीने के लिए गैर अंशदायी पेंशन योजना को स्वीकार किया गया था। इस पुरानी पेंशन व्यवस्था में कर्मचारियों को कोई अंशदान नहीं देना पड़ता और 20 साल की सेवा पूरी करने के बाद अंतिम वेतन का 50 प्रतिशत पेंशन के रूप में मिलता था। उसकी मृत्यु के बाद उसके परिवारजनों को इसका 60 प्रतिशत पेंशन के रूप में प्राप्त होता था। इसके अलावा यह भी प्रावधान था कि कर्मचारी जीपीएफ (जनरल प्रोविडेंट फंड) में अपनी सेवा काल में अंशदान जमा करता था जो सेवानिवृत्ति के वक्त में ब्याज सहित उसे प्राप्त हो जाता था। इसके अलावा कर्मचारियों को ग्रेच्युटी का भी भुगतान किया जाता था। 

       1991 में नई आर्थिक औद्योगिक नीतियों आने के बाद सरकार ने कल्याणकारी राज्य की अपनी जिम्मेदारियां से पल्ला झाड़ना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे जो सुविधा मजदूरों और कर्मचारियों को मिलती थी उनमें एक-एक कर कटौती की जाती रही। 2004 में अटल बिहारी वाजपेई की एनडीए सरकार ने पुरानी पेंशन योजना को खत्म करके नई पेंशन योजना चालू किया। इस पेंशन योजना में कर्मचारियों का अंशदान 10 प्रतिशत रखा गया और सरकार शुरुआत में 10 प्रतिशत का अंशदान करती थी जिसे बाद में बढ़ाकर 14% कर दिया गया। इससे सेवाकाल में जो पूरी धनराशि बनती थी उसका 60 प्रतिशत कर्मचारियों को सेवानिवृति के समय मिल जाता था और शेष 40 प्रतिशत को शेयर मार्केट में लगाया जाता था और उसके लाभांश के रूप में पेंशन दी जाती रही। इस योजना के कारण बहुत सारे कर्मचारियों को 5000 से भी कम पेंशन प्राप्त हुई। स्वाभाविक रूप से कर्मचारियों में इसके विरुद्ध एक बड़ा गुस्सा था। लोकसभा चुनाव और इसके पहले के विधानसभा चुनावों में यह मुद्दा बना। राजस्थान, छत्तीसगढ़, पंजाब तथा हिमाचल प्रदेश की राज्य सरकारों ने पुरानी पेंशन स्कीम को लागू करने की बात की है। जिसमें से राजस्थान में भाजपा सरकार बनने के बाद ओपीएस को वापस ले लिया गया।

        भाजपा और आरएसएस की सरकार समझ रही है कि कर्मचारियों को नाराज करके वह देश में लम्बे समय तक राज नहीं कर सकती है। इसलिए मोदी सरकार ने वित्त सचिव टी वी सोमनाथन के नेतृत्व में नई पेंशन स्कीम में सुधार के लिए एक कमेटी का भी गठन किया। हालांकि इस कमेटी के अध्यक्ष द्वारा पुरानी पेंशन को लागू करने से साफ इनकार कर दिया गया और इसे सरकार पर बड़ा वित्तीय भार बताया। 
        
        बहरहाल अभी मोदी सरकार ने 24 अगस्त 2024 को यूनिफाइड पेंशन स्कीम (यूपीएस) की घोषणा की है। इस पेंशन स्कीम में सुनिश्चित पेंशन के नाम पर कर्मचारियों को सेवानिवृत्ति वर्ष के 12 महीनों में प्राप्त वेतन के बेसिक पे के 50 प्रतिशत को पेंशन के रूप में देने का प्रावधान किया गया है। शर्त यह है कि कर्मचारी 25 साल की नौकरी पूरा करें तभी उसे यह पेंशन मिलेगी। इस अवधि तक सेवा करने वाले कर्मचारियों के परिवारजनों को उसकी मृत्यु पर पेंशन का 60 प्रतिशत पारिवारिक पेंशन मिलेगी। जबकि पुरानी पेंशन स्कीम में सेवा अवधि 20 साल थी। सरकार का यह प्रावधान अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के कर्मचारियों के हितों के पूर्णतया विरुद्ध है। क्योंकि आमतौर पर नौकरी में आयु सीमा की छूट के कारण इस तबके के लोग 40 साल तक की आयु में नौकरी पाते हैं और 60 साल की सेवानिवृत्ति में वह मात्र 20 साल ही पूरा कर पाएंगे। जिसके कारण उन्हें इस पेंशन का पूर्ण लाभ नहीं मिल सकेगा। इसके अलावा 10 साल नौकरी करने वालों को न्यूनतम ₹10000 पेंशन राशि देना निर्धारित किया गया है।
        
          यूनिफाइड पेंशन स्कीम में सरकार ने कर्मचारियों को सेवानिवृत्ति के समय दी जा रही पेंशन में डियरलेस अलाउंस देने की कोई बात नहीं की है। सुनिश्चित पेंशन प्राप्त होने के बाद इन्फ्लेशन इंडेक्सेशन यानी मुद्रास्फीति सूचकांक के अनुसार डियरलेस रिलीफ दी जाएगी। सरकार ने कहा है कि सेवानिवृत्ति के समय ग्रेच्युटी के अलावा कर्मचारियों को एकमुश्त भुगतान किया जाएगा। यह एकमुश्त भुगतान उसके अंतिम वेतन और डीए को मिलाकर जो वेतन बनेगा उसका दसवां हिस्सा होगा और उसकी कुल सेवा अवधि को 6-6 महीने में बांटकर इस 10 प्रतिशत का गुणांक का उसको भुगतान किया जाएगा। उदाहरण से हम इसको समझ सकते हैं यदि किसी कर्मचारी की सेवा अवधि 25 साल है और उसका अंतिम वेतन 1 लाख रुपए है तो उसे 50 छमाही अवधि का 10 हजार के गुणांक यानी 5 लाख रुपए का भुगतान किया जाएगा। इस पेंशन योजना में सेवा अवधि के दौरान कर्मचारियों ने जो 10 प्रतिशत अंशदान जमा किया है और सरकार का 18.5 प्रतिशत अंशदान है उसके भुगतान पर कुछ भी नहीं बोला गया है। जबकि सभी जानते हैं कि पुरानी पेंशन स्कीम में तो कोई अंशदान  नहीं था। नई पेंशन स्कीम में भी जो अंशदान था इसका 60 प्रतिशत सेवानिवृत्ति के समय कर्मचारियों को मिलता था। लेकिन इस योजना में अंशदान का कोई पैसा मिलने का प्रावधान नही है। स्पष्टतह कर्मचारियों के अंशदान के पूरे पैसे को सरकार ने यूनिफाइड पेंशन स्कीम में हड़प लेने का काम किया है।
   
       पुरानी पेंशन देने में सरकार का संसाधन ना होने का तर्क भी बेमानी है। इस देश में संसाधनों की कमी नहीं है यदि यहां कॉरपोरेट और सुपर रिच की सम्पत्ति पर समुचित टैक्स लगाया जाए तो इतने संसाधनों की व्यवस्था हो जाएगी कि कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन योजना लागू की जा सकती है। साथ ही साथ शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के अधिकार की भी गारंटी होगी। आइपीएफ ने असंगठित क्षेत्र के मजदूरों तक सामाजिक सुरक्षा के लाभ को विस्तारित करने की सरकार से मांग की है और कर्मचारी संगठनों से इसके पक्ष में खड़ा होने की अपील की है। आइपीएफ की राष्ट्रीय कार्यसमिति ने  पुरानी पेंशन योजना के अधिकार के लिए जो कर्मचारी और कर्मचारी संगठन लड़ रहे हैं उनसे अपनी एकजुटता व्यक्त की है और सरकार से यूपीएस जैसी योजनाओं को लाने की जगह पुरानी पेंशन बहाल करने की मांग की है।

आइपीएफ की राष्ट्रीय कार्यसमिति की ओर से

भवदीय 
एस. आर. दारापुरी
राष्ट्रीय अध्यक्ष

27/08/2024

आसू रेडीमेड स्टोर नैपुरा मार्केट में आपका स्वागत है

अगस्त 27, 2024 0
आसु रेडीमेड स्टोर नैपुरा मार्केट 
साड़ी संग्रह केवल एक ही स्थान पर अधिक छूट मिल रही है और उनके उपहार कार्ड भी मिलते हैं, हमने उन सभी सहायक व्यक्ति से वादा किया है जो वास्तव में वास्तविकता कपड़ों की दुकान को जानते हैं। एक बार मुझे आपकी मदद करने के लिए दिया गया है।सड़क समाचार: वाराणसी, ब्रेकिंग न्यूज 

सत्य के साथ 100 दिन राजघाट ऐतिहासिक सोसायटी बचाओ अभियान सरकार के फैसले के खिलाफ प्रदर्शन

अगस्त 27, 2024 0
सड़क समाचार: वाराणसी, ब्रेकिंग न्यूज*आइए! न्याय के लिए दीप जलाएं*
राजघाट वाराणसी गांधी प्रेस 


*100 दिन का सत्याग्रह*

11 सितंबर से 19 दिसंबर 2024

राजघाट,वाराणसी

बंधुवर,
जय जगत!

आप इस दुखद घटना  से अवगत हैं कि गत वर्ष 22 जुलाई 2023 को सर्व सेवा संघ परिसर-साधना केंद्र को प्रधानमंत्री के इशारे पर वाराणसी एवं रेल प्रशासन ने बिना किसी अदालती आदेश के अवैध रूप से कब्जा कर लिया और 12 अगस्त 2023 को परिसर के भवनों को बुलडोजर द्वारा ध्वस्त कर दिया।
 जब से केंद्र में तथा कई राज्यों में आरएसएस/बीजेपी की सरकार बनी है तब से गांधी विचार, गांधीवादी एवं अन्य स्वैच्छिक संगठनों पर सरकार का हमला तेज हो गया है।

सरकार ने सबसे पहला हमला साबरमती आश्रम पर किया और पर्यटकों को अंतरराष्ट्रीय स्तर की सुविधा देने के नाम पर इसके अधिकांश हिस्सों पर कब्जा कर लिया।
 सरकार इसे प्रेरणा स्थल से बदलकर मौज-मस्ती का स्थान बनाना चाहती हैं।

 भारतीय संस्कृति की दुहाई देने वाले इन लोगो को सादगी के सौंदर्य की समझ भी नहीं है। 
इसी तरह गुजरात विद्यापीठ को भी अपने नियंत्रण में ले लिया है। देश भर में सैकड़ों संस्थाओं को, जिन्होंने समाज सेवा के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है, निशाना बनाया जा रहा है, तरह-तरह से परेशान किया जा रहा है।धड़ल्ले से FCRA का  रजिस्ट्रेशन रद्द किया जा रहा है।
 सर्व सेवा संघ परिसर यानी विनोबा के साधना केंद्र ध्वस्त कर देना, प्रकाशन की किताबों को सड़क पर फेंक देना, इसी कड़ी का एक कदम है।
 लेकिन सर्व सेवा संघ ने आप के सहयोग एवं जन संगठनों की सामूहिक भागीदारी से इसका प्रतिवाद किया, जो अभी भी जारी है।

इसी क्रम में स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम व्यक्तिगत सत्याग्रही एवं भूदान आंदोलन के प्रणेता आचार्य विनोबा भावे के जन्म दिवस 11 सितंबर से 19 दिसंबर 2024 तक सौ  दिनों का *व्यक्तिगत सत्याग्रह* चलाया जाएगा। इस कार्यक्रम में 100 जिलों के लोक सेवक और सहमना संगठनों के साथी भागीदारी कर रहे हैं। 
प्रत्येक जिला सर्वोदय मंडल या सहमना संगठन की ओर से एक व्यक्ति *व्यक्तिगत सत्याग्रह पर बैठेगा, उपवास पर रहेगा* और कुछ अन्य साथी सहयोग में रहेंगे।

हम चाहते हैं कि इस सत्याग्रह में आपके संगठन/ संस्था की भी भागीदारी अवश्य हो। आप अपनी सुविधा के अनुसार सत्याग्रह में एक या एक से अधिक दिनों की भागीदारी कर सकते हैं। 

 आपके रहने और भोजन की व्यवस्था स्थानीय स्तर पर की जाएगी। आप अपने आने की पूर्व सूचना देंगे तो इंतजाम करने में हमें सुविधा होगी।

व्यवस्था हेतु संपर्कः
------------------------- 
सुरेंद्र सिंह
 9451938269
तारकेश्वर सिंह 
99450243008

*निवेदक:*
 प्रो आनंदकुमार,
 चंदनपाल, अरविंद कुशवाहा,अशोक भारत, सत्येंद्र सिंह
अरविंदअंजुम
8874719992
नंदलाल मास्टर
9415300520 
जागृति राही 7651864879 
राम धीरज 
94530 47097

24/08/2024

अपने वाहन में जिपिएस लगवाने के लाभ

अगस्त 24, 2024 0
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सड़क समाचार: वाराणसी, ब्रेकिंग न्यूज

नमस्कार दोस्तों,☺👮
अपने वाहन को चोरी होने से पहले सुरक्षा करें।
अपने सभी वाहनों में जिपिएस लगवायें।
अपने वाहन को लाइव ट्रैक देखें मोबाइल पर साथ ही इग्निशन लाॅक करें अपने फ़ोन से।

Gps order Krane ke liye contact kijiye 
📞 9005727700

23/08/2024

अपने वाहन को सुरक्षित करें जिपीएस से

अगस्त 23, 2024 0
सड़क समाचार: वाराणसी, ब्रेकिंग न्यूज

 GPS आपको एक जगह से दूसरे जगह तक पहुंचने में मदद करता है। जीपीएस का इस्तेमाल हम लोकेशन पता करने में करते हैं। GPS तीन कम्पोनेंट से मिल कर बना होता है, जिसमें GPS Ground Control Station , GPS Satellite और GPS Receiver शामिल है। GPS कम से कम 24 उपग्रहों से बना है, जीपीएस सभी प्रकार के मौसम में लगातार 24 घंटे काम करता है।




22/08/2024

नालंदा विश्वविद्यालय का इतिहास

अगस्त 22, 2024 1
सड़क समाचार: वाराणसी, ब्रेकिंग न्यूज                

One of the most famous stories from Bihar is the tale of "Nalanda University"—an ancient seat of learning that symbolizes India's rich educational heritage. Here's the story:

The Story of Nalanda University
Nalanda University, located in the ancient kingdom of Magadha (modern-day Bihar), was one of the earliest and most renowned centers of learning in the world. Established in the 5th century AD during the Gupta Empire, Nalanda became a beacon of knowledge, attracting scholars from various parts of the world, including China, Korea, Japan, Tibet, Mongolia, Turkey, Sri Lanka, and Southeast Asia.

Foundation and Growth
The university was founded by Gupta emperor Kumaragupta I in around 427 CE. Over the centuries, Nalanda flourished under the patronage of various rulers, including Harsha, the Buddhist emperor of Kannauj. It is said that the university housed over 10,000 students and 2,000 teachers. The vast campus of Nalanda comprised multiple temples, monasteries, lecture halls, and libraries, all designed in an elaborate architectural style. The university offered courses in diverse subjects, ranging from Buddhism, Vedas, and logic to grammar, medicine, and mathematics.

Scholars and Contributions
One of the most celebrated scholars associated with Nalanda was Xuanzang (also known as Hiuen Tsang), a Chinese Buddhist monk who visited India in the 7th century. Xuanzang studied and taught at Nalanda for many years, and his detailed accounts provide invaluable insights into the university's structure, curriculum, and life on campus. Another notable scholar was Dharmapāla, who contributed significantly to Buddhist philosophy and was instrumental in establishing Nalanda as a center of Mahayana Buddhism.

Destruction and Legacy
Nalanda's glory came to a tragic end in the 12th century when it was destroyed by Bakhtiyar Khilji, a Turkish invader. The libraries of Nalanda, containing thousands of manuscripts, were set on fire and burned for months. This marked the decline of Buddhism in India and the end of Nalanda as a major center of learning.

However, the legacy of Nalanda continues to inspire. In 2010, the Government of India established the modern Nalanda University near the ancient site, aiming to revive its tradition of learning and scholarship. This new university attracts students from across the globe, much like its ancient predecessor.

Cultural Significance
Nalanda's story is not just about a university; it represents the intellectual and spiritual quest of ancient India. It stands as a testament to the importance of education, the exchange of ideas, and the pursuit of knowledge that transcends borders. The ruins of Nalanda, now a UNESCO World Heritage Site, serve as a reminder of the rich cultural and academic heritage of Bihar and India.







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ChatGPT says: One of the most famous stories from Bihar is the tale of **"Nalanda University"**—an ancient seat of learning that symbolizes India's rich educational heritage. Here's the story: ### The Story of Nalanda University **Nalanda University**, located in the ancient kingdom of Magadha (modern-day Bihar), was one of the earliest and most renowned centers of learning in the world. Established in the 5th century AD during the Gupta Empire, Nalanda became a beacon of knowledge, attracting scholars from various parts of the world, including China, Korea, Japan, Tibet, Mongolia, Turkey, Sri Lanka, and Southeast Asia. ### **Foundation and Growth** The university was founded by Gupta emperor Kumaragupta I in around 427 CE. Over the centuries, Nalanda flourished under the patronage of various rulers, including Harsha, the Buddhist emperor of Kannauj. It is said that the university housed over 10,000 students and 2,000 teachers. The vast campus of Nalanda comprised multiple temples, monasteries, lecture halls, and libraries, all designed in an elaborate architectural style. The university offered courses in diverse subjects, ranging from Buddhism, Vedas, and logic to grammar, medicine, and mathematics. ### **Scholars and Contributions** One of the most celebrated scholars associated with Nalanda was **Xuanzang** (also known as Hiuen Tsang), a Chinese Buddhist monk who visited India in the 7th century. Xuanzang studied and taught at Nalanda for many years, and his detailed accounts provide invaluable insights into the university's structure, curriculum, and life on campus. Another notable scholar was **Dharmapāla**, who contributed significantly to Buddhist philosophy and was instrumental in establishing Nalanda as a center of Mahayana Buddhism. ### **Destruction and Legacy** Nalanda's glory came to a tragic end in the 12th century when it was destroyed by Bakhtiyar Khilji, a Turkish invader. The libraries of Nalanda, containing thousands of manuscripts, were set on fire and burned for months. This marked the decline of Buddhism in India and the end of Nalanda as a major center of learning. However, the legacy of Nalanda continues to inspire. In 2010, the Government of India established the modern Nalanda University near the ancient site, aiming to revive its tradition of learning and scholarship. This new university attracts students from across the globe, much like its ancient predecessor. ### **Cultural Significance** Nalanda's story is not just about a university; it represents the intellectual and spiritual quest of ancient India. It stands as a testament to the importance of education, the exchange of ideas, and the pursuit of knowledge that transcends borders. The ruins of Nalanda, now a UNESCO World Heritage Site, serve as a reminder of the rich cultural and academic heritage of Bihar and India.ChatGPT

21/08/2024

69000 शिक्षक भर्ती पर एस.आर. दारापुरी की राय

अगस्त 21, 2024 0
सड़क समाचार: वाराणसी, ब्रेकिंग न्यूज69000 शिक्षक भर्ती के संदर्भ में हाईकोर्ट के आए फैसले पर आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट का वक्तव्य 
अजय रॉय
अजय रॉय अखिल भारतीय जन मोर्चा के नेता


69000 शिक्षक भर्ती मामले में हाईकोर्ट ने 13 अगस्त 2024 के अपने फैसले में चयन सूची रद्द करने और आरक्षण अधिनियम 1994 को लागू करते हुए नये सिरे से सूची तैयार करने का आदेश जारी किया है। हाईकोर्ट के फैसले में यह भी नोट किया गया है कि बेसिक शिक्षा (शिक्षक) सेवा नियमावली 1981 में 2018 में किए गए 22 वें संशोधन के उपरांत मौजूदा स्थिति पैदा हुई। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी स्वीकार किया कि आरक्षित श्रेणी के युवाओं को नियमानुसार आरक्षण देने में गलती हुई है। सरकार ने आरक्षित श्रेणी के 6800 अभ्यर्थियों की अतिरिक्त सूची चयन हेतु जारी भी की थी। जिसे नियमों का उल्लंघन मानते हुए हाईकोर्ट की सिंगल बेंच ने खारिज कर दिया था। 

     हाईकोर्ट के फैसले से इतना तो स्पष्ट है कि आरक्षित श्रेणी के युवाओं के साथ नाइंसाफी हुई है और आरक्षण अधिनियम 1994 का अनुपालन नहीं किया गया। विपक्ष के कुछ दलों का यह कहना कि परिषदीय विद्यालयों में पिछड़े और दलितों का हक मारा गया। यह इन अर्थों में सही है कि आरक्षित पदों में उनका प्रतिनिधित्व कम है, लेकिन यह भी सच है कि अनारक्षित यानी सामान्य श्रेणी में अन्य पिछड़ा वर्ग के 12630, अनुसूचित जाति के 1637 और अनुसूचित जनजाति के 21 अभ्यर्थियों का चयन हुआ है। इस तरह पिछड़े, दलित व आदिवासियों का 69000 सीटों में कुल 48699 पदों पर चयन हुआ है। उत्तर प्रदेश सरकार का यह कहना कि पिछली सरकारों की तुलना में इस बार पिछड़ों, दलितों व आदिवासियों की नियुक्ति अधिक हुई है मायने नहीं रखता। मुख्य प्रश्न यह है कि आरक्षित पदों पर पिछड़ों, दलितों व आदिवासियों की नियुक्ति क्यों नहीं हुई। यही सवाल उच्च न्यायालय के सामने था और इसी सवाल पर शिक्षक अभ्यर्थी आंदोलनरत हैं। यही आंदोलन का मुख्य विषय भी है। हर हाल में आरक्षित पदों को भरा जाना चाहिए और जो शिक्षक अभी अध्यापन कार्य में लगे हैं उनका उचित समायोजन करना सरकार की जिम्मेदारी है। 
            
         इस पूरे प्रकरण को समग्रता में समझने के लिए कुछ महत्वपूर्ण नियम व अधिनियम पर गौर करने की जरूरत है। परिषदीय विद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति बेसिक शिक्षा अधिनियम 1972 एवं शिक्षा सेवा नियमावली 1981 के आधार पर होती है। 1994 में आरक्षण अधिनियम व 2009 में शिक्षा अधिकार अधिनियम पारित किए गए। इन्हें लागू करने को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षक आर्हता परीक्षा (टीईटी) होना अनिवार्य माना और सहायक अध्यापक भर्ती में परीक्षा कराने का निर्देश दिया था। स्वत: स्पष्ट है कि पुराने कानून आज के दौर के लिए उपयुक्त नहीं रह गए हैं। नयी परिस्थिति में नये अधिनियम व नियमावली बनाने की जरूरत थी लेकिन यह काम प्रदेश की किसी सरकार ने नहीं किया। 
        
        परिणामत: उत्तर प्रदेश में अभी तक जितनी भी नियुक्तियां हुई हैं वह अधिकांशतः विवादित रही हैं। इसका गहरा दुष्प्रभाव शिक्षा जगत पर पड़ा है। शिक्षा जगत में गुणवत्ता की कमी तो आई ही है साथ ही परिषदीय विद्यालयों व शिक्षकों की संख्या भी क्रमश: घटाई जा रही है। शिक्षा के निजीकरण और पतन में शासन में रहे सभी दलों की भूमिका रही है लेकिन इसमें भी भाजपा की सबसे बढ़कर भूमिका है। माध्यमिक व उच्च शिक्षा भी इसका अपवाद नहीं है। शिक्षा व स्वास्थ्य के बजट शेयर में लगातार गिरावट आई है। 

         शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 का सीधा मतलब है कि हर हाल में स्कूली बच्चों को अनिवार्य, निःशुल्क व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की गारंटी सरकार करे। इसी अधिनियम के बाद देश भर में परिषदीय विद्यालयों में बड़े पैमाने पर शिक्षकों के पदों का सृजन किया गया। प्राथमिक विद्यालयों में छात्र शिक्षक अनुपात 30:1 उच्च प्राथमिक विद्यालयों में 35:1 का अनुपात रखा गया। शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 लागू होने के बाद प्रदेश के करीब 1.56 लाख परिषदीय विद्यालयों में शिक्षकों के 8.80 लाख पद सृजित किए गए। शासन में आने के बाद योगी सरकार ने पहला काम 1.26 लाख हेडमास्टर के पदों को खत्म करने का किया। इसके बाद 2021-2023 की अवधि में 1.39 लाख शिक्षकों के पदों को खत्म किया गया। इसकी जानकारी संसद सत्र में कार्मिक मंत्री द्वारा दी गई। 

     मीडिया रिपोर्टों में यह भी बताया गया है कि 30 बच्चों से कम संख्या वाले करीब 24 हजार परिषदीय विद्यालयों को बंद किया गया है। इसके अलावा अभी 50 बच्चों से कम संख्या वाले करीब 27 हजार स्कूलों को बंद करने का प्रस्ताव है। इतने बड़े पैमाने पर पदों को खत्म करने और स्कूलों को बंद करने के बाद भी विधानसभा में सरकार ने बताया कि प्राथमिक विद्यालयों में स्वीकृत पद 417886 के सापेक्ष 85152 पद रिक्त हैं और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में स्वीकृत पद 162198 में से 41338 पद रिक्त हैं। अभी भी परिषदीय विद्यालयों में कुल रिक्त पद 126490 हैं। योगी सरकार ने छात्र शिक्षक अनुपात में शिक्षा मित्रों व अनुदेशकों को शामिल करते हुए रिक्त पदों को भरने से इंकार कर दिया। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि शिक्षा मित्रों व अनुदेशकों को सहायक अध्यापक नहीं माना जाएगा।

      गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और खाली पदों को भरने, स्कूलों का मर्जर अथवा बंद करने पर रोक जैसे सवालों को लेकर तमाम संगठनों द्वारा खासकर युवाओं द्वारा अनवरत आवाज उठाई गई है। जाहिरा तौर पर सरकार की यह कार्रवाई शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 का उल्लंघन है और इसका उद्देश्य परिषदीय विद्यालयों का निजीकरण करना और शिक्षा माफियाओं को बढ़ावा देना है। 

आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट की राष्ट्रीय कार्य समिति की तरफ से

एस. आर. दारापुरी 
राष्ट्रीय अध्यक्ष

21 अगस्त 2024                                                      अधिक जानकारी के लिए रोडवे न्यूज़ से जुड़े रहें या www.roadwaynews.com पर जाएं

मीडिया पर डॉ.राधेश्याम यादव की राय

अगस्त 21, 2024 0

सड़क समाचार: वाराणसी, ब्रेकिंग न्यूज आज पूरे देश को मिडिया और यहां के नेता देश को बदनाम कर रहे है जैसे पूरा देश ही बलात्कारी देश है अरे जरा सोचों एक केश या कई केश हो इस तरह से देश को राजनैतिक लाभ के लिए देश को बदनाम करना बन्द करें उसके लिए कानून और प्रशासन है कडी कारवाई करें जो बाहरी सुनेना वह मोदी जी का देश बलत्करी देश है आप जरा सा सोचो अगर आप के परिवार में कोई गलत कार्य हो जायेगा तो क्या आप उसे इस तरह प्रचार करवायें गें की प्रशासन से कड़ी कार्यवाही चाहेंगे जरा सा सोचा
देश मे गरीबों का हक खाने वाले चिल्ला रहे है की उनकी बेहमानी पर किसी की नजर न पढे और वह हमारा शोषण करते रहे - जरा सा सोचों PDA के लोग तुम्हे था कितना अन्याय हो रहा है और अपना मे भी कुछ विभीषण है जो उनका झोला उठा कर ढो रहे है अपने परिवार के स्वार्थ के लिए पूरे समाज को घोषा दे रहे है और हम उन्हे अपना नेता मानते है। बहुत अन्याय हमारे समाज PDA के साथ हो रहा है सोचों और अपना विचार बताये
डा राधे श्याम यादव समाज वैज्ञानिक वाराणसी

20/08/2024

डॉ. राधेश्याम यादव की राय में लड़के और लड़कियों में क्या अंतर है

अगस्त 20, 2024 1
जनता की आवाज, ब्रेकिंग न्यूज बेटीया बेटिया बहुत हो रहा है जरा सा सोचो बेटिया स्वतन्त्र रूप से स्वछन्द घुमती है और खुशी मनाती है हमारा धर्म क्या कहता है जरा उसपर भी सोचों धर्म बनाने वाले वेवकुफ थे क्या - . - -
आप रात मे घूमते हो क्या सोचते हो
घटना सभी के साथ हो सकता है
बरेली की घटना भूल गये क्या 2001 मे क्या हुआ था बेटे के साथ
इस लिए बेटा हो चाहे बेटी नियंत्रण मै रहना चाहिए इस विषय मे आप क्या सोचते है दिल पर हाथ रख कर सच्चाई बतायें
पूर्व प्रोफेसर एवं समाज विज्ञानी, उत्तर प्रदेश सरकार

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का बजट कॉरपोरेट के लिए सुनहरा द्वार और जनता के लिए खाली पेट! कुछ सोचिए

अगस्त 20, 2024 0
जनता की आवाज, ब्रेकिंग न्यूज *मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल का पहला बजट: मेहनतकश जनता पर आर्थिक बोझ बढ़ाते हुए पूँजीपतियों के और ज़्यादा मुनाफ़ों का इंतज़ाम – संपादकीय*

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा सातवाँ बजट पेश करने से पहले मोदी सरकार द्वारा दिए गए संकेतों में ही साफ़ हो गया था कि इस बार के बजट में मेहनतकश जनता के लिए कुछ नहीं होगा। 2023-24 के आर्थिक सर्वेक्षण ने स्पष्ट कर दिया था कि अथाह मुनाफ़े कमा रहे देश के अरबपतियों की दौलत को मोदी सरकार बिल्कुल हाथ नहीं लगाएगी, बल्कि मेहनतकश जनता को मिलने वाली सुविधाओं पर कटौती की जाएगी, पूँजीपतियों को और ज़्यादा छूटें देकर उनका मुनाफ़ा बढ़ाने के मौक़े पैदा किए जाएँगे। रोज़गार पैदा करने की कोई भी ज़ि‍म्मेदारी नहीं उठाएगी, यानी बढ़ती बेरोज़गारी से निपटने के लिए सरकार ख़ुद कुछ नहीं करेगी, बल्कि प्राइवेट सेक्टर को नौकरियाँ पैदा करने की अपीलें करेगी और इसी बहाने उन्हें धन लुटाया जाएगा।

बजट क्या है?

बजट सरकार की एक साल की आमदनी और ख़र्चे का अनुमानित लेखा-जोखा होता है। सरकार की आमदनी और ख़र्चों का वितरण इस बात पर निर्भर करता है कि राज्यसत्ता पर किस वर्ग का राज है। चूँकि मौजूदा पूँजीवादी ढाँचे में पूँजीपति सरकार चलाते हैं, इसलिए बजट भी इनके ही हितों को ध्यान में रखकर बनाया जाता है। पूँजीपतियों के हितैषी बजट में

मेहनतकश जनता से आमदनी छीनकर पूँजीपतियों के हवाले करने, उनके मुनाफ़े बढ़ाने का ख़ाका तैयार किया जाता है। इसीलिए ऐसे बजट में सरकार की आय का मुख्य स्रोत मेहनतकश जनता पर लगाया जाने वाला प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष टैक्स होता है, जिससे होने वाली आमदनी को बाद में बड़े पूँजीपतियों और परजीवी राज्य मशीनरी को क़ायम रखने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

बजट की विस्तृत चर्चा से पहले सरकार के आमदनी के स्रोतों के बारे में बात करना ज़रूरी है, ताकि देखा जा सके कि सरकार अपनी आय के लिए मुख्य तौर पर मेहनतकशों पर लगाए जाने वाले टेक्सों पर निर्भर है। बजट में बताया गया है कि यूनियन सरकार (भारत सरकार) का कुल ख़र्चा इस वित्तीय साल के लिए 48.20 लाख करोड़ रुपए होगा। लेकिन इसके उलट सरकार की आमदनी महज़ 32.07 लाख करोड़ रुपए ही है। यानी सरकार का राजकोषीय घाटा 16.13 लाख करोड़ रुपए का रहेगा। अगर सरकार की आमदनी ख़र्चों से कम होगी, तो वह बकाया राशि कहाँ से आएगी? जवाब है – क़र्ज़ों और अन्य देनदारियों से। सरकार की ब्याज़ देनदारी बढ़कर 11.62 लाख करोड़ रुपए होने का अनुमान है। सीधे शब्दों में कहें तो सरकार मौजूदा देनदारियों को भविष्य की पीढ़ियों पर क़र्ज़ा थोपकर पूरा कर रही है। सरकार की आय का एक तिहाई हिस्सा लोगों पर बोझ डालने वाले ऐसे उधारों से आएगा। इसके अलावा अन्य 28 फ़ीसदी राशि जी.एस.टी., कस्टम और उत्पाद करों (एक्साइज़ शुल्क) से आएगी। यानी सरकार की आमदनी का 63% सीधे आम लोगों की बचत, विभिन्न टैक्सों से आएगा। पूँजीपतियों पर लगाए जाने वाले कारपोरेट टैक्स या मध्यम/अमीर वर्ग पर लगने वाले इनकम टैक्स से सरकार की आमदनी का केवल 30-35% ही आता है। बड़े पूँजीपतियों की आमदनी पिछले सालों में दोगुनी से भी ज़्यादा बढ़ जाने के बावजूद मोदी सरकार उन पर कोई नया टैक्स नहीं लगा रही है, बल्कि कटौती कर रही है। अब आगे बजट की चर्चा पर चलते हैं।

बजट में मेहनतकश जनता की सुविधाओं में कटौती

हर साल के बजट में सरकार द्वारा दावा किया जाता है कि मोदी सरकार लगातार बुनियादी ढाँचे पर होने वाले बजट ख़र्चे को लगातार बढ़ा रही है। साल 2022-23 में पूँजी ख़र्चा 7.20 लाख करोड़ था, जो 2023-24 में बढ़कर 9.48 लाख करोड़ हो गया और इस बार के बजट में और बढ़कर 11.11 लाख करोड़ रुपए कर दिया गया है। बुनियादी ढाँचे पर सरकारी ख़र्चे के असल मक़सद को समझने की ज़रूरत है। सड़कों, हवाई अड्डों, बंदरगाहों और अन्य बुनियादी ढाँचे पर होने वाला यह सरकारी ख़र्चा भी असल में पूँजीपतियों के मुनाफ़े बढ़ाने के लिए ख़र्च की जाने वाली ही रक़म है, क्योंकि बुनियादी ढाँचे के ये सभी प्रोजेक्ट सार्वजनिक-निजी भागीदारी के तहत चलाए जाएँगे, यानी सरकार इन प्रोजेक्टों को बनाकर पूँजीपतियों के हवाले कर देगी। दूसरा, ऐसे प्रोजेक्ट पूँजीपतियों की लागत घटाने का काम करते हैं, जिसके ज़रिए भी कुल मिलाकर उन्हें अपने मुनाफ़े बढ़ाने में ही मदद मिलती है।

सरकार अपनी आमदनी मेहनतकश जनता पर टैक्स लगाकर जुटाती है। लेकिन क्या सरकार इस आमदनी से मेहनतकश जनता की भलाई के लिए कुछ कर रही है? नहीं! इसे हम अलग-अलग शर्तों के तहत सरकार द्वारा किए जाने वाले ख़र्चों के ज़रिए समझ सकते हैं।

इस बजट में मोदी सरकार ने पेंशन और विकलांगता योजनाओं के लिए 2023-24 में रखे 9,652 करोड़ रुपए के बजट में इस साल बिल्कुल भी बढ़ौतरी नहीं की। अगर इसमें महँगाई का हिस्सा जोड़ दिया जाए तो असल में इस योजना का बजट कम ही हुआ है। आगे, एक तरफ़ तो मोदी सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून योजना के तहत मुफ़्त राशन को बढ़ाने की बात करती है, लेकिन वहीं दूसरी तरफ़ इस बजट में सरकार ने खाद्य सब्सिडी को पिछले साल के 2.12 लाख करोड़ से घटाकर 2.05 लाख करोड़ रुपए कर दिया है।

मोदी सरकार द्वारा जनकल्याण योजनाओं पर की गई कटौती को अगर पिछले साल की कटौतियों की रोशनी में देखें, तो और भी भयानक तस्वीर सामने आती है। पिछले 8-9 साल में खाद्य सब्सिडी, शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य समाज कल्याण संबंधी ख़र्चों में बड़े पैमाने पर कटौती की गई है। उदाहरण के लिए खाद्य सब्सिडी जोकि 2015-16 में कुल बजट का 7.70 फ़ीसदी हुआ करती थी, अब 2024-25 में घटकर केवल 4.26 फ़ीसदी रह गई है। इसी तरह समाज कल्याण ख़र्चे 1.70 फ़ीसदी से घटकर कुल बजट का 1.10 फ़ीसदी, शिक्षा पर ख़र्चा 3.75 फ़ीसदी से घटकर 2.50 फ़ीसदी, स्वास्थ्य पर ख़र्चा 1.91 फ़ीसदी से घटकर 1.85 फ़ीसदी रह गया है। यानी जनकल्याण की कोई ऐसी मद नहीं है, जिसमें पिछले 8-9 साल में मोदी हुकूमत द्वारा कटौती ना की गई हो।

अगर स्वास्थ्य की बात करें, तो सरकार ने इस साल के बजट में 1.09 लाख करोड़ रुपए रखे हैं, जो पिछले साल के रखे गए 1.04 लाख करोड़ रुपए के बजट से मामूली बढ़ौतरी है। लेकिन सरकार की नालायक़ी देखिए कि पिछले साल के 1.04 लाख करोड़ रुपए के स्वास्थ्य बजट में से भी पूरे ख़र्चे नहीं गए और संशोधित करके केवल 91,633 करोड़ रुपए ही स्वास्थ्य बजट में लगाए गए। आज भारत में सरकारी अस्पतालों और जो सरकारी अस्पताल हैं भी उनमें डॉकटरों की भारी कमी है। अगर गाँवों, पिछड़े इलाक़ों को देखें तो कई-कई किलोमीटर तक कोई ढंग का प्राथमिक क्लीनिक भी मौजूद नहीं है, अस्पताल की तो बात ही क्या करेंगे! आज भी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों, स्टाफ़ और दवाओं की भारी कमी है, लेकिन इसे बढ़ाने के लिए सरकार की ओर से कोई घोषणा नहीं की गई है। इसी तरह एनम नर्सों की संख्या में भी 2014 की तुलना में कमी आई है, जबकि ज़रूरत इस समय इसे और बढ़ाने की थी। पिछले दिनों में कितनी ही रिपोर्टें आई हैं कि सरकार द्वारा आयुष्मान योजना के बकाया ना देने के कारण अस्पतालों में मरीजों के इलाज नहीं किए जा रहे, लेकिन इस योजना का विस्तार करने के लिए सरकार के पास कुछ नहीं है। जहाँ तक दवाओं का सवाल है, तो सभी जानते हैं कि निजी कंपनियों द्वारा मरीजों को महँगी दवाओं के नाम पर बुरी तरह से लूटा जाता है। इसके बावजूद मोदी सरकार ने बजट में 2,143 करोड़ रुपए निजी कंपनियों के लिए रख दिए हैं, लेकिन सस्ती दवाएँ बनाने वाली सरकारी कंपनियाँ, जिनका मोदी हुकूमत ने पूरी तरह से भट्ठा बिठा दिया है, के लिए कोई घोषणा नहीं हुई। एक ओर तो ‘विश्वगुरु’ कहलाने वाली भारत सरकार ‘सर्वव्यापी स्वास्थ्य सुविधाओं’ के कार्यक्रम पर हस्ताक्षर करके विश्व स्तर पर झूठी धूम मचा रही है, दूसरी तरफ़ स्वास्थ्य क्षेत्र और कुल घरेलू उत्पादन का डेढ़ फ़ीसदी से भी कम ख़र्च करके लोगों को इलाज के लिए बड़े-बड़े मगरमच्छों के सामने फेंक रही है।

शिक्षा के क्षेत्र में सरकार पहले ही ‘नई शिक्षा नीति 2020’ लागू कर शिक्षा को मेहनतकशों के बच्चों से छीनने की घातक योजना लेकर आई थी। कहने को शिक्षा बजट में लगभग 8% की बढ़ौतरी करके 1.20 लाख करोड़ तक किया गया है, लेकिन असल में स्कूली शिक्षा और साक्षरता का बजट 72,474 करोड़ रुपए से महज़ 1% बढ़ाकर 73,008 करोड़ रुपए ही किया गया है, जो महँगाई को देखते हुए असल में घटा ही है। यह कुल बजट का 2.51% है, जो पिछले साल के 2.57% से कम है। यह सरकार के शिक्षा पर घरेलू उत्पादन के 6% तक ख़र्च करने की खोखली घोषणा से बहुत कम है। दूसरा, शिक्षा के बजट में से यू.जी.सी. का बजट पिछले साल के 6,409 करोड़ रुपए से 60 फ़ीसदी तक घटाकर 2,500 करोड़ रुपए कर दिया गया है। इससे छात्रों को मिलने वाले वज़ीफ़े और अन्य सुविधाओं में बड़ी कटौती की गई है। यह एक तरह से सरकार द्वारा घोषणा है कि वह जल्द ही यू.जी.सी. का औपचारिक रूप से अंत करने की तैयारी कर चुकी है। अध्यापकों, लेक्चररों की ख़ाली पड़ी लाखों भर्तियों को भरने के लिए कोई घोषणा नहीं की गई है, जिसका सीधा मतलब है कि सरकारी शिक्षा का भट्ठा और बैठेगा, भले ही वह स्कूली शिक्षा हो या कॉलेज, यूनिवर्सिटियों की शिक्षा हो।

बेरोज़गारी बढ़ाती मोदी सरकार

पिछले चुनावों में कम वोट मिलने से यह साफ़ हो गया था कि मोदी सरकार को भले ही फ़ालतू चर्चा के लिए ही सही, लेकिन इस बार के बजट में नौजवानों के लिए सबसे केंद्रीय मुद्दे रोज़गार को जगह देनी ही होगी, और वित्त मंत्री के बजट भाषण का पहला हिस्सा इसी मुद्दे पर केंद्रित था। लेकिन जैसी कि उम्मीद थी, सरकार ने रोज़गार देने की ज़ि‍म्मेदारी ख़ुद उठाने से पूरी तरह हाथ खड़े कर दिए हैं। तो फिर सवाल उठता है कि सरकार रोज़गार देने के लिए क्या योजना बना रही है? रोज़गार देने के लिए बजट में घोषित योजना में दो तरह की योजनाएँ रखी गई हैं।

पहले प्रकार की योजनाएँ रोज़गार से संबंधित सब्सिडियाँ हैं, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मालिकों को दी जाएँगी। महीने के एक लाख तक वेतन वाले कर्मचारियों को तीन कि़स्तों में 15,000 रुपए देने की योजना से फ़ायदा मुख्य रूप से औपचारिक क्षेत्र के एक नाममात्र हिस्से को ही होगा। सब्सिडी का दूसरा हिस्सा, जिसमें सरकार पी.एफ़. स्कीम लागू करने के बदले में कंपनी मालिकों को दो सालों के लिए 3,000 रुपए प्रति महीना देती रहेगी, इसका सीधा फ़ायदा मालिकों को मिलेगा।

योजनाओं के दूसरे भाग में सरकार ने नौजवानों के लिए प्रशिक्षण आदि पर सब्सिडी देने की घोषणा की है, जिसके तहत सरकार नौजवानों को ‘प्रशिक्षित’ करेगी, ताकि वे अधिक “रोज़गार लायक़” बन सकें। यानी इस योजना की घोषणा के बाद सरकार की सोच स्पष्ट समझ में आती है कि सरकार बेरोज़गारी के लिए ख़ुद को ज़ि‍म्मेदार नहीं मानती है, बल्कि उसका मानना है कि नौजवानों के पास ज़रूरी प्रशिक्षण नहीं है कि वे रोज़गार के लायक़ हो! इस योजना को सरकार की अन्य घोषणाओं के साथ जोड़कर देखें, जिनमें इसने देशी-विदेशी पूँजीपतियों को टैक्स रियायतें दी हैं, तो तस्वीर और साफ़ हो जाती है कि सरकार बेरोज़गारी की समस्या का हल निजी पूँजीपतियों को नौजवानों को नौकरियाँ देने के लिए “प्रोत्साहित” करने में देखती है।

जिस देश में 35 साल से कम उम्र के नौजवानों की संख्या कुल आबादी के 65% से अधिक हो, जिस देश में केवल यूनियन सरकार के विभागों के 9.64 लाख पद ख़ाली हों और राज्य सरकार के मिलाकर दसियों लाख अन्य पद ख़ाली हों, जहाँ 2014-22 के बीच सवा सात लाख सरकारी नौकरियों के लिए 22 करोड़ से अधिक नौजवान आवेदन करते हों और जहाँ शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र में लाखों की संख्या में स्टाफ़ की कमी हो, वहाँ सरकार द्वारा पदों को भरने, खस्ता हालात ढाँचे को सुधारने के लिए नई भर्तियाँ करने के बजाय केवल बड़ी कंपनियों को सब्सिडी, टैक्स रियायतों के दरवाज़े-खिड़कियाँ खोल दिए गए हों कि वे इन योजनाओं से “प्रोत्साहित” होकर नए प्रोजेक्ट स्थापित कर सकें, नौजवानों को रोज़गार दें, तो भला ऐसी सरकार और ऐसी योजना से क्या उम्मीद की जा सकती है? यानी बेरोज़गारी के मुद्दे पर वित्त मंत्री की पहाड़ जितनी चर्चा के बाद नीचे से असल में एक चूहा ही निकला है!

रोज़गार के मुद्दे पर सरकार की जनविरोधी नीति को मनरेगा के बजट से भी समझा जा सकता है। मनरेगा योजना के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में 100 दिन का सरकारी काम मिलता है। हालाँकि यह काम गुज़ारे के लिए पूरी तरह से नाकाफ़ी है, इसमें हेराफेरी के कितने ही मामले सामने आते हैं, जिसके चलते इसका दायरा बढ़ाने, इसमें सुधार की माँग मनरेगा मज़दूरों के संगठन लगातार करते रहे हैं। लेकिन इस योजना के लिए 2024-25 में घोषित की गई 86,000 करोड़ रुपए की राशि लगभग पिछले साल के बराबर ही है, भले ही कुछ दिन पहले ही रिपोर्ट आ गई थी कि पिछले साल की इस राशि में से पहले चार महीनों में ही आधी राशि यानी 41,500 करोड़ रुपए ख़र्च किए जा चुके हैं यानी योजना के तहत काम की माँग बहुत ज़्यादा है, फिर भी मनरेगा सरकार द्वारा इस साल का बजट ना बढ़ाने का मतलब है कि बाक़ी आठ महीनों में 44,500 करोड़ रुपए की नाममात्र की राशि से ही काम चलाना होगा। यह एक तरह से इस योजना को तबाह करने वाला क़दम है, जिससे ग्रामीण क्षेत्र में थोड़ी-बहुत ही सही ग़रीब मेहनतकशों को राहत मिलती थी, जबकि ज़रूरत थी कि मनरेगा की तर्ज पर इससे व्यापक योजना शहरी क्षेत्र में भी शुरू की जाए।

इस तरह बजट में शहरी-ग्रामीण मज़दूरों और अन्य मेहनतकशों की बेहतरी के लिए कुछ भी नहीं है। जो है वो उनकी स्थिति और भी बदतर बनाने वाला है। पहले भी पूँजीपतियों के फ़ायदे के लिए बजट बनते आए हैं, उसी तर्ज पर यह बजट भी है। कहने की ज़रूरत नहीं है कि मोदी सरकार के इस बजट का सबसे ज़्यादा फ़ायदा एकाधिकारी पूँजीपति वर्ग को मिलेगा, लेकिन पूँजीपति वर्ग के अन्य हिस्सों के लिए भी ख़ूब फ़ायदे का प्रबंध किया गया है। यह बजट इसी बात का सूचक है कि लुटेरे हुक्मरान मेहनतकशों को कुछ भी थाली में परोसकर नहीं देंगे। मेहनतकश जनता को तो अपनी माँगों, सुविधाओं को लेने के लिए ख़ुद ही एकजुट संघर्ष के लिए आगे आना पड़ेगा।

मुक्ति संग्राम – अगस्त 2024 में प्रकाशित

19/08/2024

डॉ. रामा नंद सिंह यादव द्वारा युवा समाज का पक्ष लिखा गया

अगस्त 19, 2024 0
जनता की आवाज, ब्रेकिंग न्यूज Gmail DR. PARMA NAND SINGH YADAV 
युवा समाज 
डॉ परमानंद यादव के माध्यम से बाबूलाल यादव एक सामाजिक कार्यकर्ता की खबर 


 

आपने ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक यूथ आर्गेनाईजेशन (AIDYO) के पश्चिम बंगाल प्रथम राज्य सम्मेलन के खुले अधिवेशन में भारत और खासकर पश्चिम बंगाल की मौजूदा परिस्थिति में युवा समुदाय की समस्याओं और उनके कार्यभारों के संबंध में चर्चा करने के लिए मुझसे आग्रह किया है। पहली बात तो यह है कि युवा समस्या सम्पूर्ण समाज की समस्याओं से अलग-थलग कोई समस्या नहीं है। मैं तो ऐसा ही समझता हूं। इसलिए युवा समाज की समस्याएं या युवा आंदोलनों के समक्ष जो समस्याएं हैं, उनकी सही समझदारी हासिल करने के लिए हमारे समाज की एक सामान्य रूप-रेखा यानी मौजूदा राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक परिस्थिति के संबंध में एक स्पष्ट धारणा रहनी चाहिए। क्योंकि, मैं समझता हूं कि इसी पृष्ठभूमि में हम सही तौर पर युवा समस्या को समझ पायेंगे।

 

अनेक घात-प्रतिघातों से गुजरते हुए पश्चिम बंगाल में, और सिर्फ पश्चिम बंगाल में ही क्यों, पूरे भारत में आज जन आंदोलन जिस मुकाम पर आ खड़ा हुआ है, उसके सामने जो अहम सवाल है, वह यह है कि आंदोलन इस देश में नहीं हुए हैं, बात ऐसी नहीं है, युवा आंदोलन इस देश में नहीं हुए हैं, ऐसा भी नहीं है। ऐसा बहुतों बार हुआ है। कई बार तो युवा आंदोलन के सैलाब से देश डूब गया है। बावजूद इसके पूरे देश के युवा समाज के सामने जो मुख्य समस्याएं थीं, देश के सामने जो समस्याएं थीं, उनमें से किसी का हल तो हुआ ही नहीं, बल्कि वे और भी जटिल हो गयी हैं।

 

जनवादी आंदोलन संचालित करने के मामले में दृष्टिकोण संबंधी कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया। युवा आंदोलन पहले भी हुए हैं, आगे भी होंगे। आप जैसा संगठन देश में पहले भी अनेक बार निर्मित करने की कोशिश हुई है, शायद आने वाले दिनों में या आज ही और निर्मित होंगे। लेकिन जिस समस्या को मैं आपके सामने रखना चाहता हूं, यदि आप उसे समझ न सकें, तो अतीत के अनेक आंदोलनों की तरह ही शायद इस आंदोलन का हश्र भी कुछ क्षणिक फायदा या नुकसान में ही सिमटकर रह जायेगा।

 

यदि पूरे भारत के मौजूदा समाज का विश्लेषण करें, तो हम पायेंगे कि उसका राजनैतिक पहलू कुछ इस तरह है: अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़कर जैसे भी हो, देश राजनैतिक तौर पर आजाद हुआ। आजादी कैसी है, आजादी के बाद राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था कैसी है इन बातों पर मतांतर हो सकता है। इस संबंध में भी मैं आपके समक्ष अपना कुछ विचार रखूंगा। लेकिन मैं समझता हूं एक विषय पर मतभेद की कोई गुंजाइश नहीं है कि देश आजाद हुआ है। आजादी के बाद देश में स्थापित राजनैतिक व्यवस्था के संबंध में विभिन्न राजनीतिक दलों और विभिन्न वर्गों की किसी भी दृष्टिकोण से जो भी व्याख्या क्यों न हो, यह निर्विवाद सत्य है कि आजादी आंदोलन का जो मुख्य मकसद था जनमुक्ति देश की जनता की हर तरह के शोषण से मुक्ति वह इस तरह की आजादी हासिल करने के जरिये अधूरी रह गयी। इस बात को आज किसी भी तरह इंकार नहीं किया जा सकता। शोषण का रूप कैसा है इस बात को लेकर मतभेद हो सकता है। लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं है कि भारतीय समाज में शोषण-जुल्म का शासन जनता की छाती पर भारी चट्टान की तरह सवार होकर देश की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक नीतियों तथा व्यवहारों को नियंत्रित कर रहा है। प्रगतिशील लोगों के बीच, जनता के साथ चलने वाले लोगों के बीच इस संबंध में कोई दो राय नहीं है। मतांतर इस बात पर है कि शोषण का चरित्र क्या है।

 

मैं शुरू में ही इस बात पर थोड़ी चर्चा करना चाहूंगा कि युवा आंदोलन और उसके सांस्कृतिक आंदोलन का उद्देश्य क्या है। ऐसा इसलिए कि युवा आंदोलन, उसके सांस्कृतिक आंदोलन और युवाओं के ज्ञान-विज्ञान तथा आदर्शों की चर्चा का कोई मतलब ही नहीं रह जाता, यदि वे वास्तविक जीवन पर, सामाजिक आंदोलन पर, देश के राजनीतिक आंदोलन पर तथा आर्थिक प्रणाली पर कोई कारगर असर न डालें। दूसरे शब्दों में हम सुसंस्कृत हैं, हम ज्ञान-विज्ञान के अनेक सिद्धांतों पर चर्चा-बहस करते हैं, लेकिन हमारे जीवन में उसका कोई असर नहीं है, जीवन में तनिक भी बदलाव लाने, उसे उन्नत करने में उसकी कोई भूमिका नहीं है। ऐसे युवा आंदोलन, सांस्कृतिक आंदोलन तो सजे-सजाये बैठकखानों की अड्डेबाजी हैं, हल्की-फुल्की बातचीत है या अधिक से अधिक दो-चार पत्र-पत्रिकाएं पढ़कर अपने आप में आत्म-संतुष्टि प्राप्त करने का साधन मात्र है। यही यदि आंदोलनों का, सांस्कृतिक चर्चा-अभ्यास का, संगठन निर्माण का या युवा आंदोलन का मकसद हो, तो मैं कहूंगा कि ऐसे आंदोलन बंद कर देना ही बेहतर है। ऐसे आंदोलनों से देश का कोई लाभ होने को नहीं है।

 

स्वाभाविक तौर पर यह सवाल उठ सकता है कि तब फिर क्या ज्ञान के चर्चा-अभ्यास और शिक्षा प्राप्ति का कोई मतलब नहीं है? मैं समझता हूं कि महज आत्म संतुष्टि के लिए ज्ञान के चर्चा-अभ्यास और उद्देश्यहीन ढंग से शिक्षा हासिल हासिल करने का कोई मतलब नहीं है। इससे प्रतिक्रिया की ताकत को ही बल मिलता है। जनहित और प्रगति के लिए शिक्षा और ज्ञान करने का मात्र एक ही मकसद हो सकता है, वह जीवन में उसका प्रयोग। वह जीवन को सही रूप में प्रभावित करेगा, हमारे आपके चरित्र को प्रभावित करेगा, समाज के अंदर आपस में संघर्षरत वर्गों के संघर्ष का चरित्र निर्धारित करना सिखाएगा। वह हमें सिखाएगा कि देश में चल रहे सम्पूर्ण आंदोलन और और समस्याओं के साथ हम कैसे जुड़ सकते हैं और किस वर्ग के आंदोलन में हम अगली कतार में शामिल हो सकते हैं। क्योंकि, हम सामाजिक जीव हैं, हम समाज के ही अंग हैं। जाहिर है कि समाज अगर सड़ जाये, टूट जाये, तो उससे सम्पूर्ण मानव समाज का नुकसान होगा. हमारा भी नुकसान होगा। इसलिए समाज की समस्याएं क्या हैं, समाज में गिरावट क्यों आ रही है इन बातों पर यदि युवा दिमाग न लगायें, यदि उन्हें जिम्मेदारी का एहसास न हो, यदि उनका काम समाज के अंदर चल रहे वर्ग-संघर्षों तथा तमाम तरह के सामाजिक आंदोलनों से अलग-थलग रहकर महज विशुद्ध ज्ञान-चर्चा हो, मैं कहूंगा कि वह ज्ञान-चर्चा या ज्ञान-साधना के नाम पर महज ढकोसला है। प्रतिक्रियावादी अथवा समाज के परजीवी विशुद्ध ज्ञान की चर्चा कहकर चाहे इसकी कितनी ही तारीफ क्यों न करें, दरअसल यह ज्ञान-चर्चा नहीं है। 'विशुद्ध ज्ञान की चर्चा' के समर्थन में इनके द्वारा चिकनी-चुपड़ी कर्ण-प्रिय बहुत बातें कही जा सकती हैं। लेकिन, जो जन आंदोलन तथा जन जीवन को प्रभावित नहीं करते, जो जन आंदोलन में आगे नहीं आते, सामाजिक समस्याएं जिनके दिलों में दर्द पैदा नहीं करतीं और समाज प्रगति की चिंता जिनकी आखों से नींद नहीं छीन लेती, ऐसे सुसंस्कृत लोगों से आप दूर रहें। आपसे यह हमारा हार्दिक आग्रह है। हमें हमेशा याद रखना होगा कि संगठन, युवा आंदोलन, युवाओं के सांस्कृतिक आंदोलन इन सब बातों का कोई मतलब ही नहीं है यदि देश के युवा यह सही तौर पर निर्धारित नहीं कर सकें कि पूरे देश की मुख्य समस्या क्या है और उस संदर्भ में उनका कार्यभार क्या है। क्योंकि, ऐसा न होने पर ज्ञान-चर्चा, संस्कृति-चर्चा सिर्फ एक शौक व मनबहलाव की चीज तथा जनता को ठगने का साधन बनकर रह जायेगी।

 

अब सम्पूर्ण देश का एक नक्शा, जैसा कि मैंने समझा है, संक्षेप में आप के सामने रखना चाहता हूं। आजादी के बाद भी स्वतंत्रता आंदोलन से भारतीय जनता की जो उम्मीदें थीं यानी सभी प्रकार के शोषणों से मुक्ति और जनहित में सुखी-समृद्ध भारत का निर्माण, वह अब तक पूरा नहीं हुआ। लेकिन यहां जो निर्मित हुआ, वह है भारत के पूंजीपति वर्ग के हित में शोषण, अत्याचार तथा सामाजिक अन्यायों की बुनियाद पर कायम ऐसी एक सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक व्यवस्था, जो भारी चट्टान की तरह हमारे समाज की छाती पर, जनता की छाती पर सवार है। दरअसल यह व्यवस्था और यह घटना ही सारी सामाजिक समस्याओं, युवा समस्या तथा समाज-प्रगति की समस्या के निदान में एक बड़ी घटना या बाधा है। इसलिए कोई भी युवा आंदोलन या सांस्कृतिक आंदोलन किसी भी तर्क से राजनैतिक आंदोलन से अलग-थलग नहीं रह सकता। हमारे सामने जो भी समस्याएं हैं, उनका मुख्य कारण है देश की मौजूदा राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था। यदि आप इस बात को मान लेते हैं और यदि आप तार्किक मानसिकता से लैस हैं, तो आप इस बात को नकार नहीं सकते कि कोई भी प्रगतिशील युवा आंदोलन शोषित जनता के बुनियादी राजनैतिक आंदोलन से अलग-थलग नहीं रह सकता, गैर-राजनैतिक नहीं रह सकता। कोई भी प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन इस बुनियादी राजनैतिक आंदोलन से अलग, राजनीति के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकता, गैर-राजनैतिक नहीं हो सकता। ऐसी हालत में चाहे शोषक वर्ग हो या शोषित वर्ग- इन दोनों वर्गों में से किसी एक के राजनैतिक आंदोलन के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में अपने को जोड़ना ही होगा। आप निश्चित तौर पर शोषक वर्ग की राजनीति के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी रूप में जुड़ना नहीं चाहेंगे। अतएव आप जिस युवा आंदोलन और सांस्कृतिक आंदोलन का संचालन कर रहे हैं, उसकी आज मुख्य समस्या यही है कि कैसे इन आंदोलनों को देश के शोषित वर्ग के शोषण से मुक्ति के क्रांतिकारी आंदोलन से जोड़ दिया जाये।

 

एक तबके के लोग कहते हैं कि छात्रों या युवाओं को राजनीति से अलग रह कर केवल सामाजिक कल्याण के बारे में सोचना चाहिए। ऐसे लोगों पर, उनकी ईमानदारी पर शक करना अनुचित नहीं होगा। इनमें कुछ लोग ऐसे भी हो सकते हैं, जो वाकई गुमराह हों। यह कोई खास बात नहीं है। लेकिन उनके ऐसे प्रचार के पीछे जो वर्गीय मंसूबा काम कर रहा है, वह यह है कि छात्रों और युवाओं को राजनीति के प्रति उदासीन बना दो। जबकि सारे देश की समस्याओं के समाधान का सवाल शोषित वर्ग के बुनियादी राजनैतिक सवाल के साथ ओतप्रोत रूप से जुड़ा हुआ है। हम चाहें या न चाहें, हमें अच्छा लगे या बुरा, किसी व्यक्ति विशेष को राजनीति से जो भी अभिरूचि या घृणा रहे, वस्तु-स्थिति यही है कि समाज की तमाम समस्याओं से राजनीति सीधा सम्बन्ध रखती है। जबर्दस्ती के अलावा इसे नकारा नहीं जा सकता। मिसाल के तौर पर हमारे समाज में जो गैरबराबरी है, जो वर्ग-विभाजन है, वह एक हकीकत है। हम कहते हैं. इसलिए समाज वर्ग-विभाजित है या हमारे जैसे कुछ लोगों का ऐसा मानना है, इसलिए भारतीय समाज वर्ग-विभाजित है-बात ऐसी नहीं है। भारतीय समाज ऐतिहासिक वजह से ही वर्ग-विभाजित है। हम चाहें या न चाहें, हमें अच्छा लगे या बुरा यह समाज इतिहास के अमोघ नियम से वर्ग-विभाजित हुआ है। इसके एक ओर जुल्म-अत्याचार के शिकार शोषित-पीड़ित मेहनतकश अवाम- मजदूर, खेतिहर मजदूर, गरीब किसान, निम्न मध्यमवर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग है; तो दूसरी ओर हैं बड़े पूंजीपति, बड़े व्यवसायी, धनी किसान आदि तथा इस शोषक वर्ग के हित में काम करने वाली शासन-व्यवस्था तथा राजसत्ता की सारी नौकरशाही शक्ति। ऐसा वर्ग-विभाजन हमारा किया हुआ नहीं है। यदि ऐसा नहीं हुआ होता, तो शायद अच्छा होता। इतिहास ने अगर मालिक और मजदूर पैदा नहीं किया होता, तो हम एतराज नहीं करते। अगर धनी किसान, बटाईदार तथा खेतिहर मजदूर पैदा नहीं हुए होते, तो हम एतराज नहीं करते। हमारे चाहने से ऐसा नहीं हुआ है। यह इतिहास के अमोघ नियम से हुआ है। अतएव, इसकी जिम्मेदारी हम पर थोपने से कोई फायदा नहीं है। हम जो कहना चाहते हैं, वह यह कि इस वस्तु-स्थिति को हमें मानना होगा। इस सच्चाई को समझकर इसका स्वरूप निर्णित करना होगा। इसका मतलब क्या है? इसका मतलब है कि वर्ग-विभाजित समाज के अंदर एक ओर शोषक और दूसरी ओर शोषित इन दोनों वर्गों में निरंतर संघर्ष चल रहा है। यह हमारी मनगढंत बात नहीं है, बल्कि यह हमारी चेतना से परे निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। इसका निर्माण इतिहास के अमोघ नियम से ही हुआ है। और इस संघर्ष की प्रक्रिया में ही भारत का राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन चल रहा है। भारतीय मनन शक्ति (Intelectual faculty), सामाजिक चिंतन, सोच-विचार आदि जो भी हम अपने बीच मौजूद पाते हैं, वे सभी इसी का ऊपरी ढांचा (Super structure) हैं। इसी संघर्ष के नतीजतन इसका निर्माण होता है और इसी संघर्ष में वह चलता रहता है। ऐसे में इस संघर्ष का सही रूप निर्धारित किये बिना हम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। अगर हम आगे बढ़ने की कोशिश करेंगे, तो वह अंधों की तरह कोशिश होगी। और अंधे जब आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं, तो जो होता है, ऐसे आगे बढ़ने से वही होगा। हम सबके मामले भी वही होगा।

 

इसलिए, भारतीय समाज, हमारा राष्ट्र शोषक और शोषित-इन दो वर्गों में बंटा हुआ है। इस वर्ग-विभाजित राष्ट्र की पृष्ठभूमि में ही तमाम आंदोलनों का स्वरूप निर्धारित करना होगा। प्रसंगवश मैं कहना चाहूंगा कि 'देशप्रेम', 'देश की पुकार' 'देशहित', 'राष्ट्रीय एकता' आदि बातों की आड़ में देश का प्रतिक्रियावादी शोषक वर्ग, बुर्जुआ लोग अक्सर युवाओं के देशप्रेम से फायदा उठाकर उन्हें गुमराह किया करते हैं। यह बात आपको सदा याद रखनी होगी कि बेशक देश को प्यार करना एक महान काम है, लेकिन देश को प्यार करने का मतलब मालिकों के तलवे चाटना नहीं है। यह कोई महान काम नहीं है। देशहित के नाम पर मालिक वर्ग के हितों की रक्षा करते चलना और यह सोचना कि हम देश को काफी प्यार करते हैं, हम देशसेवक हैं। यह कोई महान काम नहीं है। यह देश के प्रति घोर दुश्मनी है, अनजाने में सही, लेकिन यह घोर विश्वासघात है और इससे अंततः देश का काफी नुकसान होता है। इसलिए मैं कहता हूं, 'हमारा देश', 'हमारा राष्ट्र' जिसकी समस्याओं को लेकर हम चर्चा कर रहे हैं, दरअसल वह अविभाजित राष्ट्र नहीं है। वह वर्ग-विभाजित राष्ट्र है जिसमें एक ओर मालिक वर्ग है, तो दूसरी ओर मजदूर वर्ग। इसलिए 'राष्ट्रीय एकता', 'जनता की एकता', 'युवाओं की एकता' जैसी बातों से दो ही अर्थ निकल सकते हैं। मालिक वर्ग के हित में युवाओं की एकता, जनता की एकता, देश के लोगों की एकता या फिर मजदूर वर्ग, शोषित वर्ग के हित में युवाओं की, देश की जनता की तथा शोषित-पीड़ित लोगों की एकता। वर्ग विभाजित समाज में श्देश की एकता के उपर्युक्त दो ही विज्ञान-संगत अर्थ हो सकते हैं। दूसरे सभी अर्थ देशहित के नाम पर जनता को ठगने के लिए बुर्जुआ वर्ग की चालाकी है। इसलिए वर्ग चरित्र एवं वर्ग-हित का उल्लेख किये बिना श्देश की एकता, 'देशहित', जैसी बातें करने से काम नहीं चलेगा। साथ ही 'देश के लिए लड़ रहे हैं' इस तरह से समझने से भी काम नहीं चलेगा। आप लोगों को समझना होगा कि 'देश का हित' अधिकांश लोगों के हित के अर्थ में किस वर्ग के हित के साथ ऐतिहासिक तौर पर ओतप्रोत रूप से जुड़ा हुआ है। यदि शोषित वर्ग के हित के साथ, मजदूर वर्ग के हित के साथ, किसान खेत मजदूरों के हित के साथ, निम्न माध्यम वर्ग के हित के साथ देश के हित का सवाल एकार्थ हो गया हो, तो उस हालत में इन्हीं के हित में देश में आंदोलन निर्मित करना, युवा शक्ति को संचालित करना तथा युवा समाज को संगठित करना देश का काम कहलाएगा। इसलिए 'देशहित' के बारे में युवाओं में यह स्पष्ट धारणा होनी चाहिए, यह विचार होना चाहिए कि वे भारत में इस वर्ग विभाजित समाज में देशहित के नाम पर जिस हित का परचम लेकर चलना चाहते हैं, क्या वह शोषक वर्ग के हित में है या शोषित वर्ग के हित में? बगैर इस बात को समझे सिर्फ सतही ढंग से 'देश', 'देश' करते रहने से हम बार-बार मालिक वर्ग की साजिश के शिकार होंगे, न चाहते हुए भी शायद उन्हीं के हितों की हिफाजत कर बैठेंगे। ऐसी घटना अतीत में भी बहुतों बार हुई है और भविष्य में भी होगी।

 

मैं इन तमाम बातों की विस्तृत व्याख्या करना नहीं चाहता। मैं इस दृष्टिकोण से युवा समुदाय के समक्ष तमाम बातों को इसलिए रखना चाहता हूं कि सिर्फ पश्चिम बंगाल में ही नहीं, सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया के तमाम आंदोलनों में न सिर्फ मध्यम वर्ग या पढ़े-लिखे तबके के, बल्कि मजदूर किसानों के घर के युवक-युवतियों की सम्मिलित शक्ति ही इस आंदोलन की प्राण है। बूढ़े लोग, हर बात में नफा-नुकसान जोड़ने वाले लोग, सनातनपंथी पोंगापंथी कभी समाज में उफान पैदा नहीं कर पाये, कभी सामाजिक बदलाव नहीं ला पाये, सामाजिक समस्याओं के अंतिम हल के लिए आगे नहीं आ पाये। उन्होंने ऐसे आंदोलनों का संचालन नहीं किया। जिन्होंने समाज को बदला, जिन्होंने सभ्यता को आगे बढ़ने के लिए बड़े आंदोलन का निर्माण किया, वे हर देश में छात्र-युवा ही थे। और यह युवा समुदाय सिर्फ मध्यमवर्गीय शिक्षित युवा समुदाय नहीं है, बल्कि शोषित वर्ग का युवा समुदाय है। इसलिए किसान युवाओं के बारे में भी सोचना होगा, मजदूर युवाओं के बारे में भी सोचना होगा। उन्हें बड़े पैमाने पर आंदोलन में शामिल करने की बात को ध्यान में रखकर उनके साथ मिलजुलकर आप शिक्षित युवाओं को काम करना होगा। हमारे देश के युवा आंदोलन के लिए यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण काम पड़ा हुआ है।

 

याद रखना होगा कि देश की आबादी में इन मजदूर-किसान युवाओं का बहुत बड़ा हिस्सा है। बगैर इनके शिक्षित युवा एक चिंतन, एक सोच, एक आदर्शवाद तो ला सकते हैं, एक हलचल तो पैदा कर सकते हैं, लेकिन इन्हें छोड़कर आप आंदोलन का सैलाब और उफान कतई पैदा नहीं कर सकते। किसान-मजदूरों के घरों के युवक-युवतियों को छोड़कर आप देशव्यापी विशाल युवा आंदोलन खड़ा नहीं कर सकते। इसलिए किसान-मजदूर घरों के युवक-युवतियों को बड़े पैमाने पर युवा आंदोलन में शामिल करने पर आपको गंभीरता से विचार करना होगा।

 

तो, आप लोगों के युवा-आंदोलन व सांस्कृतिक आंदोलन के सामने जो समस्याएं हैं, उनमें मुख्य समस्या यही है कि हर तरह के शोषण के खिलाफ चल रहे सर्वहारा वर्ग के मूल राजनैतिक संघर्ष के साथ आपके युवा-आंदोलन को कैसे संयोजित किया जाये। इसके लिए जरूरत है सभी प्रकार के शोषणों के खिलाफ शोषित वर्गों का बड़ा जन आंदोलन। उस आंदोलन का स्वरूप कैसा होगा, उसके तौर-तरीके कैसे होंगे, उसकी समस्याएं किस तरह की होंगी यदि इन बातों को समझते हुए देश के युवाओं को सही तौर पर प्रेरित करना है, तो जो लोग इस आंदोलन का निर्माण करेंगे, उन्हें पहले देश के युवा समुदाय की आज की मानसिकता को अच्छी तरह समझना होगा।

आज के युवा समुदाय, खासकर मध्यम वर्ग के शिक्षित युवाओं की मानसिकता का एक पहलू, जो अत्यंत स्पस्ट रूप में दिखाई दे रहा है, वह है यह है कि दिन पर दिन इस देश में युवा सामाजिक समस्याओं के प्रति उदासीन होते जा रहे हैं। लगता है जैसे यह लगातार बढ़ती ही जा रही है। हम रोजाना लोगों में, युवा समुदाय में, शिक्षित समुदाय में समाज के संबंध में, किसी भी प्रगतिशील आंदोलन के संबंध में बिल्कुल बेफिक्री की भावना, पूर्ण उदासीनता की भावना (complete indefferent attitude) देख रहे हैं। इसमें लगातार इजाफा हो रहा है। आप लोगों को इसके कारण का ठीक-ठीक पता लगाना होगा। इतिहास और तर्क-विज्ञान के सहारे इस समस्या की गहराई में पहुंचने पर आप स्पष्ट तौर पर समझ पायेंगे कि राजनैतिक आंदोलन की नीतिहीनता और वैचारिक दिवालियापन यानी निचोड़ में कहा जाये, तो लम्बे अर्से से राजनैतिक नेतृत्व के दिवालियापन तथा घोर अवसरवाद ही इस हालत के लिए मुख्य तौर पर जिम्मेदार है। इसलिए, आप लोगों को दो तरह से इस स्थिति से मुकाबला करना होगा। पहला यह कि तमाम तरह के शोषणों के खिलाफ रोजाना जो जनवादी आंदोलन तथा वर्ग-संघर्ष हो रहे हैं, उनमें खुलकर शिरकत करते हुए युवा आंदोलन निर्मित करना। दूसरा यह कि वैचारिक और सांस्कृतिक आंदोलन को देश के सर्वहारा वर्ग के बुनियादी क्रांतिकारी राजनैतिक संघर्ष के साथ जोड़कर सांस्कृतिक आंदोलन का संचालन करना और इस प्रकार देशव्यापी सांस्कृतिक क्रांति की एक फिजा तैयार करना। इस प्रकार वैचारिक तथा सांस्कृतिक आंदोलन को देश के सर्वहारा वर्ग के बुनियादी राजनैतिक आंदोलन के साथ सही ढंग से जोड़ पाने से ही आप देश के सीने पर सवार बोझिल चट्टान को हटा पायेंगे। लेकिन, जो लोग इस बोझिल चट्टान को हटाएंगे; जो लोग देश में बिल्कुल नये ढंग के जन आंदोलन का उभार पैदा करेंगे, उन्हें सबसे पहले समझना होगा कि आखिर देश में सामाजिक समस्याओं के प्रति बढ़ती इस उदासीनता का कारण क्या है? क्यों दिन पर दिन समाज के अंदर, युवकों के अंदर, छात्रों के अंदर समाज के बारे में उदासीनता पनप रही है? जबकि इसी देश में हमने देखा है कि आजादी आंदोलन के दौरान जब आजादी आंदोलन की लहर चल रही थी, तब शिक्षित युवा समुदाय सामाजिक चेतना से लबालब भरा था। उस चेतना का स्वरूप चाहे जैसा भी रहा हो, समझदारी चाहे जिस स्तर की भी रही हो; फिर भी उन दिनों के युवाओं में इतनी बात तो अवश्य थी कि हम देश के सपूत हैं, देश के आजादी आंदोलन के प्रति हमारे भी कुछ कर्तव्य हैं और आजादी आंदोलन में हमें भी कुछ करना है। उस दौरान इस गुलाम देश के युवाओं को गुलामी की पीड़ा बेचैन कर देती थी। वे आजादी आंदोलन में झुंड के झुंड शामिल होते थे। फर्स्ट क्लास फर्स्ट आने वाला छात्र अपने सुनहरे भविष्य (career) को लात मारकर परीक्षा-कक्ष से मुस्कुराते हुए बेहिचक निकल पड़ता था। वह मां-बाप, सगे-संबंधी-किसी की भी बातों की परवाह नहीं करता था। यह बात तो थी। इसे नकारने की कोई गुंजाइश नहीं है। बंगाल के, भारत के युवाओं में, छात्रों में यह मानसिकता तो थी। लेकिन कहां खो गयी वा मानसिकता? क्यों खो गयी? आपको इन सवालों के जवाब ढूंढने होंगे।

 

आज सबसे बड़ी समस्या यह है कि देश के लड़के-लड़कियां विचार और मूल्यों के बारे में नहीं सोचते। समाज के बारे में ऊबन, लापरवाही तथा आत्मकेन्द्रिक मानसिकता मानो तेजी से देश के युवक-युवतियों को अपनी जद ले रहा है। 'मुझे अपने बारे में ही सोचना है। मुझे इन सब झंझटों में पड़ने की कोई जरूरत नहीं'- यह मानसिकता दिन पर दिन बढ़ रही है। धीरे-धीरे ही सही, उनमें राजनीति के प्रति एक प्रकार की अनासक्ति पनपती दिखाई पड़ रही है। उनकी समझ है कि राजनीति करना बेकार का काम है। बुर्जुआ वर्ग तथा दूसरे प्रतिक्रियावादी ताकतों के हित में उनमें इस तरह की सोच बड़ी बारीकी और चालाकी से फैलायी गयी है और फैलायी जा रही है कि राजनीति करना बड़ा काम नहीं है, बल्कि इंजीनियर बनना बड़ा काम है, बड़ी नौकरी करना बड़ा काम है, व्यवसायी बनकर पैसा कमाना बड़ा काम है और मालिक की सेवा करना ही जीवन की सार्थकता है। मुझे बड़ा बनना है इसका अर्थ क्या है? मुझे इंजीनियर बनना है यानी गुलाम बनना है। बदले में मुझे काफी पैसे मिलेंगे। मेरे पास अच्छे कपड़े होंगे, मौज-मस्ती होगी। और राजनीति करने से जिन्दगी बर्बाद हो जायेगी। वह तो गये-गुजरे लोगों का काम है। और अच्छे लोग शिक्षित बनकर, अच्छे टेकनिशियन बनकर मालिकों की दलाली करते हैं। इस तरह की मानसिकता युवाओं में बढ़ रही है, बढ़ायी जा रही है। अब सवाल उठ सकता है कि युवाओं में ऐसी निम्न कोटी की आत्मकेन्द्रिक मानसिकता के पनपने, सामाजिक समस्याओं के प्रति बढ़ रह उदासीनता तथा समाज के अंदर विभिन्न वर्गों के बीच चल रहे संघर्ष के बारे में उनकी बढ़ती लापरवाही की वजह क्या है? बहुतों को लग सकता है कि युवाओं में नैतिक गिरावट ही इसकी वजह है। लेकिन, इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि कुछ दिनों पहले भी, आजादी आंदोलन के दौरान भी युवाओं का आचरण-व्यवहार ऐसा नहीं था। तो फिर, क्या यह मान लेना होगा कि जिस समय युवाओं को, छात्रों को 'They are the flowers of Bengal' (वे बंगाल के पुष्प हैं) कहा जाता था, उस समय स्वयं 'ब्रह्मा' अपने हाथों से खास तरह से तैयार कर 'पुष्पों' को बंगाल भेजा करते थे? और आज 'ब्रह्मा जी' नाराज हो गये हैं, इसलिए बंगाल में बिल्कुल उल्टे किस्म के लड़के-लड़‌कियां पैदा हो रहे हैं? दरअसल बात ऐसी नहीं है। इसका कारण हमें समाज के अंदर, देश की राजनैतिक गतिविधियों और नेतृत्व के मानसिक तथा नैतिक स्तर में ढूंढ़ना होगा। तभी हमें इसका सही जवाब मिलेगा। वर्ना हम लोग इसी नतीजे पर पहुंचेंगे कि 'ब्रह्मा' की ही मर्जी से सबकुछ हो रहा है। हमारे लिए कुछ भी करने को नहीं है। आज लड़के-लड़कियों में आ रही गिरावट सभी देख रहे हैं पिता देख रहे हैं, शिक